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Wednesday, March 25, 2009

अजनबी ...!

फिर उसके बाद किसी
बंजर रिश्ते के हम
दो सिरे रह गए....
तुम ले चले
मुझमें से हर मुमकिन शै ,
और मैं साये को उठा लाया
एक आदमी वहीँ छोड़ कर ।
आज लेकिन शबे तन्हाई में
दौड़ा आया है वही आदमी
दूर कहीं से ....
उसी रिश्ते का रेज़ा-रेज़ा,
मरते ताल्लुक के आखरी लम्हे लेकर ।
अबके सोचा है
इसे 'अजनबी' कह दूँ ....
(*शै=वस्तु *शबे तन्हाई=एकाकी रात्रि *रेज़ा-रेज़ा=कण-कण*ताल्लुक=सम्बन्ध)
/....दीपक तिरुवा

Thursday, March 19, 2009

भूख...!/दुर्बी

फ़ाकों के क्या हाल सुनाऊँ ...?
मेरे घर का सूना चूल्हा
कब से मुझको ताक रहा है ।
घर के सारे टीन -कनस्तर
दाना -दाना तरस रहे हैं ।
सुख-दुःख के साथी थे चूहे ,
वे भी तनहा छोड़ चुके हैं ।
गलियों का आवारा कुत्ता तक
उम्मीदें छोड़ चुका है ।
सुबह शाम का उसका आना,
जाने
कब का छूट चुका है ।
मिलने पर भी उसकी दुम अब ,
पहले जैसी कब हिलती है ?
वो अपने अन्दर के कुत्ते को
मार चुका है और ढूंढ़ रहा है
अपने भीतर के मानव को...!
उसने भी बस्ती में जीना सीख लिया है ।

Wednesday, March 18, 2009

मैं, तुम और शायरी...!/दीपक तिरुवा

मैं, तुम और शायरी...
तसव्वुर की सैरगाहों में ,धुंध पर चलते रहे।
सोया किए ओढ़ कर ,जुल्फों की सियाह रातें ।
देखा किए साझा ,मुस्तक़्बिल के हसीन ख़्वाब।
ग़मे-हस्ती,ग़मे-सामां अशआर में ढलते रहे ।
मैं,तुम और शायरी...
इक दूसरे के ज़ेहन की रानाइयों में डूबे थे ...
कि अचानक जल उठे वेद,
अज़ान का दम घुटने लगा
सरे-रोज़, सरे -बाज़ार कुछ लोगों ने ,
दो मजहबों की गर्दनें काट दीं और...
खून के छींटे गिरे हमारे दामन पर ,
मैं,तुम और शायरी
अब ये किस दोराहे पर खड़े हैं....?
(तसव्वुर=कल्पना, मुस्तक़्बिल=भविष्य ,अशआर =शेर का बहुवचन, ज़ेहन=मष्तिष्क , रानाइयां =सुन्दरता)

Tuesday, March 10, 2009

जम्हूरियत चुनाव की बातें करें/मनोज 'दुर्बी'


जम्हूरियत चुनाव की बातें करें

जातिगत बिखराव की बातें करें

भूख और अभाव की बातें करें

संघर्ष
और बदलाव की बातें करें

तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें

इश्क के फैलाव की बातें करें

इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी

छाँव और ठहराव की बातें करें

हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'

किस से अपने घाव की बातें करें।

Sunday, March 8, 2009

मुशायरा- उठ मेरी जान...!

आज हमारे साथ हैं तसलीमा नसरीन, कैफ़ी आज़मी और...तो ख़वातीनो-हज़रात ये नज़्म बेहिचक आज स्त्री-विमर्श का एंथम कही जा सकती है ,बकौल शायर इसे जंगे-आज़ादी में महिलाओं को मर्दों के साथ बढ़ कर शिरक़त कराने के लिए लिखा गयाजनाब कैफ़ी आज़मी से विशेष आग्रह के साथ सुनना चाहेंगे...औरत !


कैफ़ी:-क़ल्बे हस्ती में लरज़ाँ शररे-जंग हैं आज

हौसले वक़्त के और जीस्त के यकरंग हैं आज

आबगीनों में तयां वलवलए संग हैं आज

हुस्न और इश्क हम आवाज़ो हम आहंग हैं आज



जिसमें
जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे


उठ
मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे



तू के बेजान खिलौनों से बहल जाती है

तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है

पाँवजिस राह में रखती है फिसल जाती है

बन के सीमाब हर इक सांचे में ढल जाती है



जीस्त
के आहनी सांचे में भी ढलना है तुझेउठ मेरी जान...




ज़िन्दगी ज़ेहद में है ,सब्र के क़ाबू में नहीं

नब्जे हस्ती का लहू कांपते से आंसू में नहीं

उड़ने खुलने में है नकहत ख़मे गेसू में नहीं


जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं


उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझेउठ मेरी जान ...



गोशे
-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए

फ़र्ज़ का भेष बदलती है क़ज़ा तेरे लिए

क़हर है तेरी हर एक नर्म अदा तेरे लिए

ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए



रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझेउठ मेरी जान...



कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं

तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं

तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है चीज़ जवानी ही नहीं



अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझेउठ मेरी जान...



तोड़ कर रस्म का बुत बन्दे क़दामत से निकल

जोफे इशरत से निकल वहमे नज़ाक़त से निकल

नफ्स के खींचे हुए हल्का-- अज़मत से निकल

ये भी इक क़ैद ही क़ैदे मोहब्बत से निकल



राह का खार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझेउठ मेरी जान...



तू अफ़्लातूनो अरस्तू है तू जोहरा परवीं

तेरे क़ब्ज़े में है गर्दू तेरी ठोकर पे ज़मीं

हाँ उठा ,जल्द उठा ,पा मुक़द्दर से जबीं

मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं


लड़खड़ाएगी कब तक की सम्हालना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ...



मोहतर
मा तसलीमा नसरीन का स्वागत करना चाहूँगा परवीन शाकिर के इन अशआर के साथ कि



पा
बा गुल हैं सब रिहाई की करे तदबीर कौन

दस्तबस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन

दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं

देखना है फेंकता है मुझ पे पहला तीर कौन



मोहतरमा तसलीमा नसरीन

तसलीमा:-कविता का शीर्षक है 'चरित्र'

तुम
लड़की हो


ये बहुत अच्छी तरह याद रखना


तुम जब घर की दहलीज़ पार करोगी


लोग तुम्हें तिरछी नज़र से देखेंगे


तुम
जब गली से होकर गुज़रोगी

लोग तुम्हें गालियाँ देंगे ,सीटियाँ बजायेंगे

तुम जब गली पार कर


मुख्य सड़क पार पहुँचोगी ,


वे तुम्हें 'चरित्रहीन' कहेंगे


गर तुम निर्जीव हो


तो
लौट पडोगी वरना


जैसे जा रही हो जाओगी

और ..अगले शायर हैं ...

Saturday, March 7, 2009

मुशायरा -सारा क़ुरान रट गई दुनिया..!

जनाब इब्राहीम 'अश्क' का मुशायरा (साइबर) में मैं स्वागत करता हूँ जनाब 'अश्क'

अपने हाथों से कट गई दुनिया

कितने हिस्सों में बंट गई दुनिया

अस्ल मानी कभी नहीं समझी

सारा क़ुरान रट गई दुनिया ...

हमारे दौर की शायरी को रूमानियत से लबरेज़ रखने वाले जनाब क़तील शिफाई साहब का स्वागत करना चाहूँगा जावेद अख्तर साहब के इस शेर के साथ कि ...

सफ़र इतना रायगाँ तो जा,

सही मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे

जनाब क़तील शिफाई ....

जिसे हम साफ़ पहचानें वही मंज़र नहीं मिलता

यहाँ साये तो मिलते हैं कभी पैकर नहीं मिलता

हमेशा ताज़ा दम उसके मोहल्ले तक पहुँचता हूँ

थकन उस वक़्त होती है वो जब घर पर नहीं मिलता

उस मालूम है उसका तन, सोने से महंगा है

जभी तो वो पहने हुए जेवर नहीं मिलता

परश्तिश कि तमन्ना है मगर हाय री मज़बूरी

सनम जिससे तराशा जाए वही पत्थर नहीं मिलता

अगली दावत सुखन के साथ यकीनन झूम उठियेगा ...कि अगले शायर हैं जनाब मजाज़

ख़ुद,दिल में रह के आँख से परदा करे कोई

हाँ ,लुत्फ़ जब है पा के भी, ढूंढा करे कोई

या तो किसी को ज़ुर्रते दीदार ही हो ,

या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई

तुमने तो हुक़्मे तर्क़े तमन्ना सुना दिया ,

किस दिल से आह तर्क़े तमन्ना करे कोई


मैं अहमद 'फ़राज़' के इस शेर के साथ कि...

जिसको देखो वही , जंजीर--लगता है

शहर का शहर हुआ दाखिले-ज़िन्दाँ जानां

दावत--सुखन दे रहा हूँ जनाब अली सरदार जाफ़री ...

जाफ़री :-नज़्म मुख्तसर सी है 'चाँद को रुखसत कर दो'

मेरे दरवाज़े से अब

चाँद को रुखसत कर दो

साथ आया है तुम्हारे

जो तुम्हारे घर से ,

अपने माथे से हटा दो

ये चमकता हुआ ताज

फेंक दो जिस्म से

किरणों का सुनहरी जेवर

तुम ही तनहा मेरे ग़मखाने में

सकती हो ,कि एक उम्र से

तुम्हारे ही लिए रक्खा है

मेरे
जलते हुए सीने का

दहकता हुआ चाँद

दिले खूँगश्ता का हँसता हुआ

खुशरंग गुलाब

और अगले शायर हैं ..

Friday, March 6, 2009

प्यास दरिया है ...!/दीपक तिरुवा

दर्द भी एक बहाना है , मुस्कुराने का


प्यास
दरिया है पानी के डूब जाने का


लहू निगाह में रहता है रात-दिन अपनी


हौसला
कौन करे हमको आजमाने का


पुराने इश्क से सीखा है बहुत-कुछ हमने


अब इरादा है मगर दूर तलक जाने का


मैं
यहाँ तक की हवाओं का ऐतबार करूं


यकीं बहुत है तुम्हारे भी लौट आने का


फिर से मौसम में आहट है नई बारिश की


जी बहुत होता है ऐसे में गुनगुनाने का

Wednesday, March 4, 2009

कोई अफ़सोस न पाला करिये...! /दीपक तिरुवा


कोई अफ़सोस पाला करिये

सारे अरमान निकाला करिये॥

दिल ने क्यों शोर किया है इतना,

घर
के बच्चे को सम्हाला करिये॥

कच्ची
दीवारें ,सूख जाने दो

याद
पे ज़ोर न डाला करिये॥

फिर कोई ख्वाब चला आयेगा ,

स्याह
रातों में उजाला करिये॥

एक
सैलाब लिये बैठा हूँ

मुझ
पे कंकर उछाला करिये॥