Warriors for green planet.

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Friday, July 17, 2009

उस मोड़ पर ...

एक अदद
बड़ी उम्र का
आइना चाहिए मुझको
कि मैं,
सफर में दूर
निकल तो आया हूँ
लेकिन....
इक चेहरा मेरा
ज़िद कर के
कहीं ठहर गया है,
गुजश्ता उम्र के
किसी पडाव पर
बस एक बार मुझे
उस कमबख्त के
पास जाना है ,
कहूँ उसे कि
"
चल यार बहुत हुआ...
उधर मैं भी तनहा हूँ इधर तू..."
मगर इस
उम्रे-नामुराद ने
ये गुंजाइश भी
कहाँ छोड़ी है ?
...
ये तमाम
पिछले आईने
तोड़ कर
बढ़ा करती है
कोई कहाँ से लाये
एक अदद
बड़ी उम्र का आइना ...?

Wednesday, July 8, 2009

कालिदास लौट जाएगा ...

आँख खुलती है सुबह
तो देखता हूँ
सिर के दर्द की तरह
पूरब से उगता ,आग का गोला।
रात की बहस-
दिन के काम याद आते हैं,
चौबीस घंटे के
संकरे से थैले में
क्या-क्या ठूंसना पड़ता है?
यही सोचता हुआ
उठ पडूंगा,
सिगरेट सुल्गाऊंगा ,
पैर में उलझती
चप्पल को लात मारूंगा,
गली में भौंकने वाले
कुत्ते को गोली मारने की
क़सम खाऊंगा।
एक आध पल ढंग से
जीने के लिए
एक -एक सरकते सेकेण्ड पर
कील ठोंकने की
कोशिश करता हूँ
संभावनाएं होनी चाहिए
आदमी में मोहब्बत के लिए,फिर भी....
मैं वो आदमी हूँ जिसने
विद्योतमा से प्यार किया...!
उसने स्कूल में पढ़े ,
,, ...!
कमजोरी ,खतरे ,
गरीबी के साथ
मैं बस्ती में रहा हूँ ,फिर भी...
उसे चलना है समय के साथ
दिन रात के जंगल
मुझे काटने हैं ,फिर भी...
वो विद्योतमा है
चाहे तो
भी सकती है ,
मैं मगर बन सका 'कालिदास'
तो पुरानी ही बस्ती में
लौट जाऊँगा...

Monday, July 6, 2009

औरत की निगाह में राजेंद्र यादव...!

"आप कोई भी जीवन पाते कुंठा के शिकार ही रहते....." /यानी '' चूँकि राजेंद्र यादव है इसीलिए वह कुंठित है राजेन्द्र यादव की आत्मकथा 'मुड़ -मुड़ के देखता हूँ की कंचन जी ने अपने ब्लॉग 'ह्रदय गवाक्ष' पर मुड़ मुड़ के देखता हूँ-राजेंद्र यादव नामक पोस्ट में समीक्षा की है मैं आपके विचार से अपनी असहमति दर्ज करना चाहूँगा कंचनजी !मन्नू भंडारी की आत्मकथा ' एक कहानी ये भी ' के मुताबिक " चूँकि कुंठित था इसलिए 'राजेंद्र यादव' हो गया " आपने भी उनकी कुंठा को ही उनके व्यक्तित्व का केन्द्र माना है बल्कि आप तो 'मन्नू जी' से भी आगे निकल गई हैं ....कृपया राजेंद्र यादव के वृहद् साहित्य कर्म को सामने रखिये उनकी वैचारिक प्रखरता और ओजस्वी लेखनी ने कई दशकों में बौद्धिकता के बीज बोए हैं /अन्धविश्वास ,अवैज्ञानिकता,धर्मान्धता ,लिंग असहिष्णुता की जड़ों में मट्ठा डाला है स्त्री के सन्दर्भ में उनकी मानसिकता का परीक्षण आत्मकथा /आत्मकथांश से क्यों किया जाए जबकि इस विषय पर विस्तार से 'आदमी की निगाह में औरत' नामक उनकी किताब मौजूद है ,जिसमें बड़ा यथार्थवादी दृष्टिकोण है....यह किताब हिन्दी साहित्य में Simon De Beauvoir की 'सेकंड सैक्स' और 'Germaine Greer' की Female Eunuch जैसी किताब की कमी को पूरा करती है ....सारा आकाश ,अनदेखे अनजान पुल,शह और मात जैसे उपन्यास ,ढोल जैसी बहुतेरी कहानियाँ और 'हंस' जैसी पत्रिका का संपादन जिसे केवल उनके संपादकीय 'तेरी मेरी उसकी बात' के लिए भी पढ़ा जा सकता है...... इस सब के बावजूद आप उन्हें मात्र कुंठित व्यक्ति के रूप में 'कन्क्लूड' कर दें तो यह ज्यादती है कुंठा सर्व-व्यापी है पर सभी राजेंद्र यादव नहीं हो जाते ...स्वार्थ-हीन स्नेह को आपने कुंठा की दवा कहा है ....स्नेह अच्छी चीज़ है कंचन जी लेकिन कुंठा व्यक्ति का भीतरी मसला है और स्नेह यदि पाना है तो एक बाहरी मसला है इसलिए इसमें अनिश्चितता होगी और स्नेह दिया जाना है तो कुंठा की दवा के रूप में यह प्रतिफल चाहेगा इसलिए निःस्वार्थ होने का सवाल ही नहीं है कंचन जी कुंठा से निकलने का सर्वोत्तम उपाय है स्वयं को रचनात्मक कार्यों में लगाना ....और इस मामले में आप राजेंद्र यादव के सामने किसे खड़ा करेंगी...?