Warriors for green planet.

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Saturday, February 28, 2009

ताजमहल और नमक ...!/दीपक तिरूवा

तुम सुनोगी तो हंसोगी,
मेरे दोस्त शाहजहाँ ने
ताजमहल
बनवाया है
तुम्हें यक़ीनन डाह नहीं होगी
किसी मुमताज से
तुम
जानती हो मैंने तुम्हें
दाल
में नमक की तरह चाहा है
हम आम-अवाम ,
किसी महँगी तामीर से
अपनी मोहब्बत के
अलग
या ख़ास होने का
दावा नहीं करते लेकिन....
काँप
उठेगा शाहजहाँ गर
संगेमरमर की खदानों की तरफ़
मैं निकलूं
और मुमताज
रोज़ जला करती है तुमसे
आख़िर

दाल
में नमक तो उसे भी चाहिए ....!

Wednesday, February 25, 2009

बूढा ...!/दीपक तिरुवा

चीथडा़-चीथडा़ एक बूढा ,
आँखें टँगीं हैं क्षितिज पर ।
झुर्रियों में
दफ़्न अतीत,
वर्तमान घावों से रिस रहा है ।
जा-ब-जा उधड़ी हुई चमड़ी की
पतली तह के नीचे
ये बूढा सफ़ेद हड्डियों का
एक जंगल रखता है।
बेतौर-बेतरतीब बढ़ी हुयी हड्डियाँ
हड्डियाँ त्रिशुलों में ढल गई हैं ।
बन गई हैं तमंचे ,तलवार और बम।
और बूढे का अपना ही कंकाल
रहे सहे ढांचे को नोच रहा है ,
काट रहा है ,और जला रहा है।

Friday, February 20, 2009

औरत... /मीना पाण्डेय

मैं चलती हूँ /जलती हूँ ।
तड़पती हूँ /दिन -रात ।
मैं ,सुबह हाथ /दिन में मस्तिष्क /रात में देह होकर/
भोजन ,कमाई.... और कभी स्वयं को परोसती हूँ उसके आगे।
मैं सिर्फ़ मैं बनने को/ बड़े सवेरे उठ कर तैयार करती हूँ,
उसकी ज़रूरत का सारा सामान ,
जब वो बिस्तर पर हाथ -पैर पसारे गर्म सासें भरता है ।
वो अपनी दुनिया के हिसाब से /
मांग करता है चाय की एक गर्म प्याली की,
देरी होने पर कई तरीके से/
पुष्टि करता है अपने पौरुष की ।
हम दोनों साथ -साथ घर की चौखट लाँघते हैं/
फाइलों में खोजने देश का भविष्य..../
लेकिन घर पहुँचने पर /
साडी का पल्लू कमर में मैं ही खसोटती हूँ
फिर भी उसके सिर्फ़ साथ चलने को मैं सबसे तेज़ भागती हूँ ।

Tuesday, February 17, 2009

चौथा बन्दर (the fourth monkey)


चौथा बन्दर कहानी है कुलवंत नाम के एक नौजवान की ,जो 'गांधीवादी' आदर्शों के साथ जन्म से दलित होने के दंश से संघर्ष कर रहा है । संघर्ष यही प्रदीप का भी है लेकिन 'शहीद -ए-आज़म भगत सिंह ' के बतलाये मार्ग पर । एक पृष्ठभूमि ,एक ही लक्ष्य समता मूलक समाज के लिए दो विचारधाराओं के द्वंद और अस्वीकृतियों की सदियों पुरानी श्रंखला की जकड़न में दलित परिवार में पैदा हुए 'गाँधी ' और 'भगत सिंह ' की छपटाहट के साथ कथानक आगे बढ़ता है, 'कवियत्री विद्या ' के बहाने तथाकथित आधुनिक एवं संवेदनशील तथा 'जोशी मैडम' के किरदार द्वारा संघर्ष के मुख्तलिफ़ आयामों को छू कर अंततः कहानी एक अप्रत्याशित अंत को पहुंचती है । दीपक तिरुवा की मूलकथा पर आधारित हिन्दी नाटक 'चौथा बन्दर ' का प्रेक्षागृह पौडी में ' नव सर्वोदय , पिथोरागढ़ ' और 'नवांकुर नाट्य समूह ' पौड़ी द्वारा संयुक्त मंचन किया गया । निर्देशन मनोज दुर्बी ,संगीत निर्देशन मालश्री ,और प्रकाश संयोजन अजीत बहादुर किया ।

Friday, February 13, 2009

एक पुराना ख़त खोला ...!

शायद bomb को फटने से पहले ऐसा ही लगता होगा ...! कोठरी हाँ से मैं बाहर की दुनिया ख़्वाब की रह देखता था , कुछ छू सकता था बात कर पाता था ,मेरी उम्र का एक बड़ा हिस्सा निगल गयी मेरी आवाज़ें अस्वीकृत होकर मेरे पास लौटती रहीं ,इस लिए कि मैं काँच की कोठरी में रहता था जिस किसी ने ये पीड़ा समझी उसे अंगुली पर गिन लिया ,आज तक लेकिन एक भी हाथ की सारी अंगुलियाँ नहीं गिन सका
इन चीखते बेबस सालों में अकेलेपन ने क्या - क्या छीना ? हिसाब नहींहाँ ,विद्रोह दिया है , पहला विद्रोह किया आस्था के खिलाफ़ ...फिर कमजोरी के ... अस्वीकृति की थोपी हुई नियति के ...कुंठा के ...और अंततः .....! फिर कोठरी एक दिन ढह गयीतुम आये जाने कहाँ से ऐसा कुछ लिये जो काँच से उतना ही अलग था जितना हीरा काँच की कोठरी तो टुकड़ों में बिखर गयी, अब लेकिन काँच की इन किरिंचों पर चलना है ........ !