साथियों उठो!
तुम नहीं जानते
क्या हुआ है?
तुम पथरीले खेतों में
सोना उगाने की
कोशिश करते हो..।
और लोहा समझ कर
सरहद पर भेजते हो
अपने बच्चे....
तुम नहीं जानते
बच्चे लोहे के नहीं होते...
वे सरहद पर लोहा खाएँगे।
वे शहीद नहीं
सियासत के हाथों पिटे हुए
मोहरे होंगे...
और कल सरकारी दफ्तरों में
तुम्हारी बदहवाश बहुएँ
किस 'एंगल और फ्रेम' से
देखी जायेंगी ?
तुम नहीं जानते!
इसलिए उठो !
अपने पथरीले खेतों में
अब सोना नहीं...
लोहा उगाओ..!
(published)
5 comments:
बहुत ही उम्दा रचना । लाजवाब अभिव्यक्ति
बहुत ही बेहतरीन रचना ।
बिल्कुल सही कहा है आपने ........ एक एक पंक्तियाँ सहीहै ........वो सोनेवालो अब तो जाग जाओ !
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
बहुत सुन्दर भाव की कविता. अत्यंत खूबसूरत
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