अनुभव अगर कहूँ ,
तुम छीन लोगे मुझसे
'फेमिनिस्ट'
कहलाने की खुराक !
चलो मैं इसे
शोध कहता हूँ।
मैंने तमाम
साहित्य खंगाला है,
इतिहास की
कब्र खोदी है।
और यकीनन
मैं नहीं कहता,
आंकडे बोलते हैं।
औरत में आदमी का हर एक फन है ।
आदमी की टक्कर का काइयांपन है ॥
उठो नहीं...भड़को मत ...
ये शोधपत्र ले जाओ
अपने 'तंत्र ' को समझाओ
औरत से डरने की
ज़रूरत नहीं है,
औरत भी अपनी है/
पराई नहीं है...
7 comments:
अरे आप डरते हैं औरत से? डरता वि है जिसके अपने अंदर कुछ कमी होती है। औरत जब तक कमजोर है आदमी से डरती है जब आदमी कम्जोर है तो औरत से बस इतनी सी बात है बहस की गुँजाईश ही कहाँ रही शुभकामनायें लगता है बीवी से डरे हुये हैं हा हा मजाक है इसे अन्यथा न लें।
main nahin Nirmala ji 'system'
aapko nahin lagta ki auraton ki achanak ghuspaith se hamara 'तंत्र'ghabraya huwa hai...unhen rokne ki tikdamen bhida raha hai...
अगड़म-तिकड़म मैं नहीं जानता.....लेकिन हाँ कविता अच्छी लगी। विशेषकर अंतिम पंक्तियाँ।
-विश्व दीपक
छा गये दोस्त ,बहुत दामदार बात बेबाक अंदाज़ में कही है,लिखते पढते रहें,कभी आईये इधर भी, पता है:
www.sachmein.blogspot.com
औरत से डरने की
ज़रूरत नहीं है,
औरत भी अपनी है/
पराई नहीं है...
बात को पकड पाया मैं ।
यह वैसा ही डर जैसे हिन्दी चीनी भाई भाई बोलना ।
दीपक जी,
ये तो वही बात हो गई...
''हां ये सच है मान लिया,
सच कहने से डरता हूं''
हा हा हा.....
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
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