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Friday, April 3, 2009

ज़िन्दगी-ज़िन्दगी !(अखंड)

मैं मरना चाहता था ,
मैंने देखे मौत ,दुःख, निराशा
पस्तहिम्मत ,मतलब परस्त लोग
ज़िन्दगी समझौतों में जीते लोग,
बिखरी ज़िन्दगी ,
सबकुछ जीवन विहीन.....
मैं अब जीना चाहता हूँ
अनंत समय तक
मैंने देखे जीने को कुलबुलाते लोग
ज़िन्दगी के पहलू ,दुनिया की सुन्दरता
बच्चों के हाथों की कोमलता
महसूस किया मैंने
हर इन्सान में छुपी संघर्ष की अदम्य इच्छा को
सच ,अब मैं बिल्कुल मरना नहीं चाहता
मौत अब तू मेरे क़रीब
मैं तेरे चेहरे पर जीवन के
गीत लिखना चाहता हूँ

5 comments:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

jaldi karo naa....main intzaar men hoon....jee hi dalo...poora....poora.....!!...acchhi likhi hai....!!

Udan Tashtari said...

मौत अब तू मेरे क़रीब आ
मैं तेरे चेहरे पर जीवन के
गीत लिखना चाहता हूँ।

-बहुत सही..यही ज़ज्बा होना चाहिये.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आशा की संजीवनी भरी कविता के लिए बधाई।

alka mishra said...

सामने प्रकट हो प्रलय फाड़ तुझको मैं राह बनाऊँगा
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊँगा ;
आपकी कविता पढ़ कर मुझे दिनकर की उपरोक्त लाईनें याद आ गयी
आपको साधुवाद
साहित्य हिन्दुस्तानी पर आने के लिए शुक्रिया , अंसार कंबरी कानपुर के आस पास के मंचों का जाना-पहचाना नाम हैं उनकी धार-दार रचनाएं आपको आगे भी पढने को मिलेंगी
जडी- बूटियों में रूचि हो तो मेरा समस्त पर पधारें

मोना परसाई said...

मौत अब तू मेरे क़रीब आ
मैं तेरे चेहरे पर जीवन के
गीत लिखना चाहता हूँ।
जीवन की आँखों में आखें डालती बेहतरीन रचना