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Sunday, May 3, 2009

सुनो ...! बन्दर से बने हुए 'डार्विन'...


सुनो कान खोल कर
बन्दर से बने हुए डार्विन...!
तुमने ये 'जंगल का कानून' लिखा है।
सभ्य समाज में तुम्हारा
'सर्वाइवल ऑफ़ दि फिटेस्ट '
कुछ नहीं होता।
'सब बराबर होते हैं ',
'मिलकर जीते हैं '
कोई कमज़ोर का हक़ नहीं मारता.....
सभ्य समाज में
'शॉपिंग मॉल' नहीं होते,
कोई पॉँच सितारा में नहीं खाता,
किसान खुदकुशी नहीं उगाते,
किसी का पेट रीढ़ से नहीं चिपकता ।
लोग 'स्वीमिंग पूल ' नहीं पहचानते,
कारें हवा से धोते हैं ,
पब्लिक नल पर खून नहीं बहता।
आदमी... औरत जात के लिए
कैंसर नहीं होता ,
सचमुच का कैंसर होने के दिन
औरत अपना
'बर्थ डे' नहीं मनाती।
सभ्य समाज में
रिक्शे नहीं चलते ,
जनता के नुमाइन्दे
'वी आइ पी' नहीं होते ....
और 'मजदूर दिवस '
तुम्हारे जंगल के युग की बात है ....
सुनो कान खोलकर
बन्दर से बने हुए 'डार्विन'.....
(दीपक तिरुवा)

5 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

आदमी... औरत जात के लिए
कैंसर नहीं होता ,
सचमुच का कैंसर होने के दिन
औरत अपना
'बर्थ डे' नहीं मनाती।

लाजवाब अभिव्यक्ति.........!!

आपने एक बार फिर आँखें नम कर दीं....!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भाई दीपक तिरुवा जी!
आपने बहुत अच्छा लिखा है।
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।
बधायी।

mukti said...

मैं आपकी इस टिप्पणी का यह हिस्सा नहीं समझ पाई -"ऊर्जा इस रचना में उधार है .'आपकी कविता मुझे बहुत सामयिक लगी .

Deepak Tiruwa said...

मेरी जानिब से ये साफगोई जैसा कुछ है ,शायद वही हो....

mukti said...
This comment has been removed by a blog administrator.