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Thursday, July 21, 2011

*मिराज़*

क्या तुमने
सड़क पर मिराज़ बनते देखा है?
हाँ मैंने
सड़क पर मिराज़ बनते देखा है.
...जून की इक
गर्म दोपहर
मैंने एक
ख़ूबसूरत
लड़की से कहा,
" ज़िंदगी लम्हों में जीना अच्छा होता है..!
मैं और तुम
घड़ी भर के सफ़र में हैं
और घड़ी कमबख्त
दीवार पर
टंगी रह कर भी
चला करती है.
अगर
किसी रिश्ते में यूँ हो
कि तुम,
बिलकुल
तुम रह सको
और मैं,एकदम मैं...
तो रिश्ते में इस आज़ादी को,
'मैं प्यार कहूँगा'.
प्यार के बस लम्हें मिलते हैं.!
ज़िंदगी लम्बी,रूखी है,
डामर की इस काली सड़क की तरह.
धूप जलती हुई है,
हवा नासाज़,
लेकिन दूर.....
इस सड़क की सतह पर
पानी सा झिलमिला उठा है!"
उसने बेयक़ीनी से देखा
पानी,
फिर मुझे.
और जाते हुए
हंस कर कहा,
"तुम बातें बहुत अच्छी करते हो !"
मुझे
इतना सा
और कहना था,
" ज़िंदगी लम्हों में जीना मुश्किल होता है !"
हाँ मैंने सड़क पर
मिराज़ बनते देखा है.
______(दीपक तिरुवा)______
------------*मिराज़*----------​-----
___------मृगतृष्णा ,मरीचिका----__

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

" ज़िंदगी लम्हों में जीना मुश्किल होता है !"
यही सार है इस रचना का!

vidya said...

अब आपने ये पोस्टमोर्टम लिख दिया तो कलम ही नहीं चल रही....बहुत सुन्दर कविता है दीपक जी...पहले भी पढ़ चुकी हू...ब्लॉग में आज आना हुआ..