Warriors for green planet.

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Monday, December 14, 2009

Shortest fairy tale , एवर...!

Once upon a time,

a guy asked a girl,

"Will You marry me ?"

The girl said , "No !"


And the guy lived

happily ever after
.

Rode motorcycles,

went fishing...hunting ...,

played golf a lot

and traveled everywhere ....

and still had money in bank.

Sunday, December 6, 2009

दूसरा वनवास

6 december को मिला दूसरा वनवास मुझे...nazm कैफ़ी आज़मी
pls.click to listen


voice::Deepak Tiruwa & Ashish

Saturday, November 14, 2009

मुशायरा -ज़रा नाज़ुक शेर है ..!

ख़वातीनो हज़रात साइबर मुशायरे में आपका इस्तकबाल ...बड़ी मसर्रत की बात है कि आज की शाम हमारे साथ शायरी की वो शख्सियतें ,वो नाम हैं जिनका तार्रुफ़ यही है कि वो ख़ुद अपने दौर का तार्रुफ़ हैं..तो नए -पुराने शायर का दावत-ए-सुख़न के लिए ख़याल रखने से आज़ादी हासिल करके सबसे पहले ..कुंवर 'बेचैन 'साहब के इस शेर के साथ कि...
अधर चुप हैं मगर मन में कोई संवाद जारी है
मैं ख़ुद में लीन हूँ लेकिन किसी की याद जारी है
आवाज़ दे रहा हूँ जनाब 'दुष्यंत कुमार'
धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है।
एक छाया सीढियाँ चढ़ती उतरती है ॥
मैं तुम्हें छूकर ज़रा सा छेड़ देता हूँ ,

और गीली पांखुरी से ओस झरती है ॥

अगले शायर को दावत--सुखन से पहले सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि
रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'गा़लिब'. .
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था॥
जनाब मीर तकी़ 'मीर'...
ज़ख्मों- प -ज़ख्म झेले ,दाग़ॉं - प- दाग़ खाए।
यक क़तर खू़ने-दिल ने,क्या-क्या सितम उठाये
बढ़तीं नहीं पलक से , ता हम तलक भी पहुंचें।

फिरतीं हैं वो निगाहें ,पलकों के साये-साये ॥
शैलेश मटियानी के इस कलाम के साथ मैं स्वागत करता हूँ जनाब अहमद 'फ़राज़' का कि
गीत की गुर्जरी ,प्राण के खेत में ,दर्द के बीज कुछ, इस तरह बो गई
साँस जो भी उगी, चोट खायी हुई ,ये जिंदगी क्या हुई, मौत ही हो गई
जनाब अहमद 'फ़राज़'...
हिज्रे जानां की घड़ी अच्छी लगी । अबके तन्हाई बड़ी अच्छी लगी
एक तनहा फाख्ता उड़ती हुई ।
एक हिरन की चौकडी अच्छी लगी ॥
जिंदगी कि घुप अँधेरी रात में
याद की इक फुलझडी अच्छी लगी ॥
एक शहजादी मगर दिल की फ़कीर
उस को मेरी झोपडी अच्छी लगी ॥
अगली गुजारिश जिनसे करने जा रहा हूँ वो पहले मेरी शिकायत सुन लें
इन्हें तो सब से पहले बज्म में मौजूद होना था
ये दुनिया क्या कहेगी शमा परवानों के बाद आई
जी हाँ 'परवीन शाकिर '...
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए ।
मौसम के हाथ भीग के शफ्फाक हो गए॥
लहरा रही है बर्फ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए॥
जुगनू को दिन के वक्त आजमाने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए॥
और अगले शायर हैं.......

फेमिनिस्ट

अनुभव अगर कहूँ ,
तुम छीन लोगे मुझसे
'फेमिनिस्ट'
कहलाने की खुराक !
चलो मैं इसे
शोध कहता हूँ
मैंने तमाम
साहित्य
खंगाला है,
इतिहास की
कब्र
खोदी है
और यकीनन
मैं नहीं कहता,
आंकडे बोलते हैं
औरत में आदमी का हर एक फन है
आदमी की टक्कर का काइयांपन है
उठो नहीं...भड़को मत ...
ये शोधपत्र ले जाओ
अपने 'तंत्र ' को समझाओ
औरत से डरने की
ज़रूरत
नहीं है,
औरत भी अपनी है/
पराई
नहीं है...

Wednesday, November 11, 2009

उठो !

साथियों उठो!
तुम नहीं जानते
क्या हुआ है?
तुम पथरीले खेतों में
सोना उगाने की
कोशिश करते हो..
और लोहा समझ कर
सरहद पर भेजते हो
अपने बच्चे....
तुम नहीं जानते
बच्चे लोहे के नहीं होते...
वे सरहद पर लोहा खाएँगे।
वे शहीद नहीं
सियासत के हाथों पिटे हुए
मोहरे होंगे...
और कल सरकारी दफ्तरों में
तुम्हारी बदहवाश बहुएँ
किस 'एंगल और फ्रेम' से
देखी जायेंगी ?
तुम नहीं जानते!
इसलिए उठो !
अपने पथरीले खेतों में
अब सोना नहीं...
लोहा उगाओ..!

(published)

Monday, November 9, 2009

शैतान की सीख

उत्तर जानते हुए भी चुप रहोगे तो शैतान तुम्हारा सर फोड़ देगा ...और अगर नहीं जानते तो अपना सर फोड़ेगा ... भला और बुरा दो भाई थे (एक समय की बात है) वे बिना माँ- बाप के ही पैदा हुए और दुनिया में मौजूद रहे (ऐसा कैसे सम्भव हुआ कोई नहीं जनता) खैर जो होता आया है हुआ ,समय गुजरा और वे दोनों किशोरावस्था को प्राप्त हुए बात चूँकि पुरानी है इसलिए धोखे में मत आइये 'फिल्मी फार्मूला' तब भी मौजूद था जी हाँ ! दोनों को एक ही सुंदरी 'जनता कुमारी' से प्रेम हुआ।मरियल शरीर लेकिन धूर्त बुद्धि वाले 'भले' को जल्द ही महसूस हो गया कि जनता कुमारी' का ज़्यादा ध्यान मजबूत काठी वाले शर्मीले 'बुरे' की तरफ़ है ज़ाहिर है ये उसे नागवार गुज़रा ,सोउसने खूब सोच कर आखिरकार 'जनता कुमारी'को धीरे - 'बुरे' की ताक़त से डराना शुरू किया उसने बताया कि 'बुरा' कितना भयानक हो सकता था और कितना अधिक नुकसान पहुँचा सकता था। जितना अधिक वह 'बुरे' का कथित भय बढाता रहा,उतना ही 'सुंदरी जनता' उसके करीब आती गई ।प्यार करने लगी और अंततः पूजने लगी आज भी जब 'भले' को कुछ असुरक्षित सा लगता है तो वो 'बुरे' से खतरे के बारे में चिल्लाने लगता है ,'जनता कुमारी' तुंरत 'भले' की पूजा में जुट जाती है।
प्रश्न ():-भला और बुरा नाम के दो भाई कहाँ रहते थे ?
प्रश्न():-क्या इस कहानी से भी कोई शिक्षा मिलती है ?
प्रश्न ():-'भगवान' और 'शैतान'के बारे में आप क्या जानते हैं ?

Wednesday, October 7, 2009

सशब्द -nazm

ये कुछ -कुछ remix जैसा काम है...audio effect के साथ मेरी नज़्म 'उस मोड़ पर' पेशे नज़र है

Friday, July 17, 2009

उस मोड़ पर ...

एक अदद
बड़ी उम्र का
आइना चाहिए मुझको
कि मैं,
सफर में दूर
निकल तो आया हूँ
लेकिन....
इक चेहरा मेरा
ज़िद कर के
कहीं ठहर गया है,
गुजश्ता उम्र के
किसी पडाव पर
बस एक बार मुझे
उस कमबख्त के
पास जाना है ,
कहूँ उसे कि
"
चल यार बहुत हुआ...
उधर मैं भी तनहा हूँ इधर तू..."
मगर इस
उम्रे-नामुराद ने
ये गुंजाइश भी
कहाँ छोड़ी है ?
...
ये तमाम
पिछले आईने
तोड़ कर
बढ़ा करती है
कोई कहाँ से लाये
एक अदद
बड़ी उम्र का आइना ...?

Wednesday, July 8, 2009

कालिदास लौट जाएगा ...

आँख खुलती है सुबह
तो देखता हूँ
सिर के दर्द की तरह
पूरब से उगता ,आग का गोला।
रात की बहस-
दिन के काम याद आते हैं,
चौबीस घंटे के
संकरे से थैले में
क्या-क्या ठूंसना पड़ता है?
यही सोचता हुआ
उठ पडूंगा,
सिगरेट सुल्गाऊंगा ,
पैर में उलझती
चप्पल को लात मारूंगा,
गली में भौंकने वाले
कुत्ते को गोली मारने की
क़सम खाऊंगा।
एक आध पल ढंग से
जीने के लिए
एक -एक सरकते सेकेण्ड पर
कील ठोंकने की
कोशिश करता हूँ
संभावनाएं होनी चाहिए
आदमी में मोहब्बत के लिए,फिर भी....
मैं वो आदमी हूँ जिसने
विद्योतमा से प्यार किया...!
उसने स्कूल में पढ़े ,
,, ...!
कमजोरी ,खतरे ,
गरीबी के साथ
मैं बस्ती में रहा हूँ ,फिर भी...
उसे चलना है समय के साथ
दिन रात के जंगल
मुझे काटने हैं ,फिर भी...
वो विद्योतमा है
चाहे तो
भी सकती है ,
मैं मगर बन सका 'कालिदास'
तो पुरानी ही बस्ती में
लौट जाऊँगा...

Monday, July 6, 2009

औरत की निगाह में राजेंद्र यादव...!

"आप कोई भी जीवन पाते कुंठा के शिकार ही रहते....." /यानी '' चूँकि राजेंद्र यादव है इसीलिए वह कुंठित है राजेन्द्र यादव की आत्मकथा 'मुड़ -मुड़ के देखता हूँ की कंचन जी ने अपने ब्लॉग 'ह्रदय गवाक्ष' पर मुड़ मुड़ के देखता हूँ-राजेंद्र यादव नामक पोस्ट में समीक्षा की है मैं आपके विचार से अपनी असहमति दर्ज करना चाहूँगा कंचनजी !मन्नू भंडारी की आत्मकथा ' एक कहानी ये भी ' के मुताबिक " चूँकि कुंठित था इसलिए 'राजेंद्र यादव' हो गया " आपने भी उनकी कुंठा को ही उनके व्यक्तित्व का केन्द्र माना है बल्कि आप तो 'मन्नू जी' से भी आगे निकल गई हैं ....कृपया राजेंद्र यादव के वृहद् साहित्य कर्म को सामने रखिये उनकी वैचारिक प्रखरता और ओजस्वी लेखनी ने कई दशकों में बौद्धिकता के बीज बोए हैं /अन्धविश्वास ,अवैज्ञानिकता,धर्मान्धता ,लिंग असहिष्णुता की जड़ों में मट्ठा डाला है स्त्री के सन्दर्भ में उनकी मानसिकता का परीक्षण आत्मकथा /आत्मकथांश से क्यों किया जाए जबकि इस विषय पर विस्तार से 'आदमी की निगाह में औरत' नामक उनकी किताब मौजूद है ,जिसमें बड़ा यथार्थवादी दृष्टिकोण है....यह किताब हिन्दी साहित्य में Simon De Beauvoir की 'सेकंड सैक्स' और 'Germaine Greer' की Female Eunuch जैसी किताब की कमी को पूरा करती है ....सारा आकाश ,अनदेखे अनजान पुल,शह और मात जैसे उपन्यास ,ढोल जैसी बहुतेरी कहानियाँ और 'हंस' जैसी पत्रिका का संपादन जिसे केवल उनके संपादकीय 'तेरी मेरी उसकी बात' के लिए भी पढ़ा जा सकता है...... इस सब के बावजूद आप उन्हें मात्र कुंठित व्यक्ति के रूप में 'कन्क्लूड' कर दें तो यह ज्यादती है कुंठा सर्व-व्यापी है पर सभी राजेंद्र यादव नहीं हो जाते ...स्वार्थ-हीन स्नेह को आपने कुंठा की दवा कहा है ....स्नेह अच्छी चीज़ है कंचन जी लेकिन कुंठा व्यक्ति का भीतरी मसला है और स्नेह यदि पाना है तो एक बाहरी मसला है इसलिए इसमें अनिश्चितता होगी और स्नेह दिया जाना है तो कुंठा की दवा के रूप में यह प्रतिफल चाहेगा इसलिए निःस्वार्थ होने का सवाल ही नहीं है कंचन जी कुंठा से निकलने का सर्वोत्तम उपाय है स्वयं को रचनात्मक कार्यों में लगाना ....और इस मामले में आप राजेंद्र यादव के सामने किसे खड़ा करेंगी...?

Thursday, May 7, 2009

इक उम्मीद की तीली,साथ में रखना...

भुला दो सब अज़ाबो-ग़म ,नयी दुनिया बसाने को।
जड़ें पिछली हटाते हैं , नये दरख्त लगाने को ॥
वहीं हम दिल लगाते हैं ,जहाँ अपना सुकूं देखें।
फिर इसको इश्क कहते हैं,ज़माने में दिखाने को॥
तुम इक उम्मीद की तीली,हमेशा साथ में रखना
अँधेरा एक मौका है ,कोई दिया जलाने को
तबीयत बुझते-बुझते भी, मेरी रंगीन हो बैठी।
किसी ने फूल बरसाए ,सितम का रंग छुपाने को॥
पतझड़ ,जाड़ा ,गर्मी हो ,बारिश हो या गुल रुत हो
सभी मौसम परीशां हैं,हुनर अपना दिखाने को
अगर वो बेवफ़ा हो कर,मुझे भुलाना चाहेगा।
उसे मैं भूल जाऊँगा ,वफ़ा अपनी निभाने को॥
(दीपक तिरुवा)

Sunday, May 3, 2009

सुनो ...! बन्दर से बने हुए 'डार्विन'...


सुनो कान खोल कर
बन्दर से बने हुए डार्विन...!
तुमने ये 'जंगल का कानून' लिखा है।
सभ्य समाज में तुम्हारा
'सर्वाइवल ऑफ़ दि फिटेस्ट '
कुछ नहीं होता।
'सब बराबर होते हैं ',
'मिलकर जीते हैं '
कोई कमज़ोर का हक़ नहीं मारता.....
सभ्य समाज में
'शॉपिंग मॉल' नहीं होते,
कोई पॉँच सितारा में नहीं खाता,
किसान खुदकुशी नहीं उगाते,
किसी का पेट रीढ़ से नहीं चिपकता ।
लोग 'स्वीमिंग पूल ' नहीं पहचानते,
कारें हवा से धोते हैं ,
पब्लिक नल पर खून नहीं बहता।
आदमी... औरत जात के लिए
कैंसर नहीं होता ,
सचमुच का कैंसर होने के दिन
औरत अपना
'बर्थ डे' नहीं मनाती।
सभ्य समाज में
रिक्शे नहीं चलते ,
जनता के नुमाइन्दे
'वी आइ पी' नहीं होते ....
और 'मजदूर दिवस '
तुम्हारे जंगल के युग की बात है ....
सुनो कान खोलकर
बन्दर से बने हुए 'डार्विन'.....
(दीपक तिरुवा)

Friday, May 1, 2009

गाँधी , संविधान और माओ...

हम क्या करेंगे
इसे तय करने वाले
गाँधी ,संविधान या माओ...
कौन होते हैं ?
ये हमारे सूखे हुए पेट
और आप के
भरे हुए बाजुओं का किस्सा है ....
आप सोचते हैं
हम क्या खा कर करेंगे 'मोहब्बत' ?
हम जानते हैं
'संघर्ष' आप के बस की बात नहीं....
मोहब्बत बाजुओं-बाँहों का
लहलहाना भर नहीं है,
दो सूखे पेट
इकलौती रोटी को बाँट भी सकते हैं।
इसलिए
बिन पढ़े खाने दीजिये
मोहब्बत लिखी रोटी
सूखे पेटों को ....
वगर्ना हम क्या करेंगे ?
इसे गाँधी संविधान या माओ ,
तय नहीं करेंगे....

Wednesday, April 29, 2009

अब उसी दरिया को पानी चाहिए

सुर्ख सुबह शाम सुहानी चाहिए ।
जिंदगी भर खींचा-तानी चाहिए॥
काट कर पर्वत भगीरथ की तरह
काम की गंगा बहानी चाहिए ॥
कल जहाँ रुकते थे प्यासे काफिले
अब उसी दरिया को पानी चाहिए॥
सींच डाले जो ज़मीं को खून से ,
इस धरा को वो जवानी चाहिए ॥
मंदिरों में क़ैद ईश्वर को 'मनोज'
ख़ुद मदद अब आसमानी चाहिए॥
(मनोज दुर्बी)

Tuesday, April 7, 2009

गहरे-हल्के,कितने सदमे

अपने सबसे अच्छे नगमे, तेरे लिए मैंने लिखे ।
आँख के पानी पे सपने, तेरे लिए मैंने लिखे ।
रात दिन मेरे साथ चलने की ना जिद कर जिंदगी
राहे -वफ़ा के आईने , तेरे लिए मैंने लिखे ।
उसे फ़िक्र हो ऐसा न था,लेकिन मुझे कहता रहा
गहरे-हल्के,कितने सदमे तेरे लिए मैंने लिखे।
मैं सितारे तोड़ के दूँ तुझे,ये मेरा अहद नहीं मगर
रेत पर अंगुली से झरने ,तेरे लिए मैंने लिखे।
(दीपक तिरुवा)

Friday, April 3, 2009

ज़िन्दगी-ज़िन्दगी !(अखंड)

मैं मरना चाहता था ,
मैंने देखे मौत ,दुःख, निराशा
पस्तहिम्मत ,मतलब परस्त लोग
ज़िन्दगी समझौतों में जीते लोग,
बिखरी ज़िन्दगी ,
सबकुछ जीवन विहीन.....
मैं अब जीना चाहता हूँ
अनंत समय तक
मैंने देखे जीने को कुलबुलाते लोग
ज़िन्दगी के पहलू ,दुनिया की सुन्दरता
बच्चों के हाथों की कोमलता
महसूस किया मैंने
हर इन्सान में छुपी संघर्ष की अदम्य इच्छा को
सच ,अब मैं बिल्कुल मरना नहीं चाहता
मौत अब तू मेरे क़रीब
मैं तेरे चेहरे पर जीवन के
गीत लिखना चाहता हूँ

Wednesday, March 25, 2009

अजनबी ...!

फिर उसके बाद किसी
बंजर रिश्ते के हम
दो सिरे रह गए....
तुम ले चले
मुझमें से हर मुमकिन शै ,
और मैं साये को उठा लाया
एक आदमी वहीँ छोड़ कर ।
आज लेकिन शबे तन्हाई में
दौड़ा आया है वही आदमी
दूर कहीं से ....
उसी रिश्ते का रेज़ा-रेज़ा,
मरते ताल्लुक के आखरी लम्हे लेकर ।
अबके सोचा है
इसे 'अजनबी' कह दूँ ....
(*शै=वस्तु *शबे तन्हाई=एकाकी रात्रि *रेज़ा-रेज़ा=कण-कण*ताल्लुक=सम्बन्ध)
/....दीपक तिरुवा

Thursday, March 19, 2009

भूख...!/दुर्बी

फ़ाकों के क्या हाल सुनाऊँ ...?
मेरे घर का सूना चूल्हा
कब से मुझको ताक रहा है ।
घर के सारे टीन -कनस्तर
दाना -दाना तरस रहे हैं ।
सुख-दुःख के साथी थे चूहे ,
वे भी तनहा छोड़ चुके हैं ।
गलियों का आवारा कुत्ता तक
उम्मीदें छोड़ चुका है ।
सुबह शाम का उसका आना,
जाने
कब का छूट चुका है ।
मिलने पर भी उसकी दुम अब ,
पहले जैसी कब हिलती है ?
वो अपने अन्दर के कुत्ते को
मार चुका है और ढूंढ़ रहा है
अपने भीतर के मानव को...!
उसने भी बस्ती में जीना सीख लिया है ।

Wednesday, March 18, 2009

मैं, तुम और शायरी...!/दीपक तिरुवा

मैं, तुम और शायरी...
तसव्वुर की सैरगाहों में ,धुंध पर चलते रहे।
सोया किए ओढ़ कर ,जुल्फों की सियाह रातें ।
देखा किए साझा ,मुस्तक़्बिल के हसीन ख़्वाब।
ग़मे-हस्ती,ग़मे-सामां अशआर में ढलते रहे ।
मैं,तुम और शायरी...
इक दूसरे के ज़ेहन की रानाइयों में डूबे थे ...
कि अचानक जल उठे वेद,
अज़ान का दम घुटने लगा
सरे-रोज़, सरे -बाज़ार कुछ लोगों ने ,
दो मजहबों की गर्दनें काट दीं और...
खून के छींटे गिरे हमारे दामन पर ,
मैं,तुम और शायरी
अब ये किस दोराहे पर खड़े हैं....?
(तसव्वुर=कल्पना, मुस्तक़्बिल=भविष्य ,अशआर =शेर का बहुवचन, ज़ेहन=मष्तिष्क , रानाइयां =सुन्दरता)

Tuesday, March 10, 2009

जम्हूरियत चुनाव की बातें करें/मनोज 'दुर्बी'


जम्हूरियत चुनाव की बातें करें

जातिगत बिखराव की बातें करें

भूख और अभाव की बातें करें

संघर्ष
और बदलाव की बातें करें

तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें

इश्क के फैलाव की बातें करें

इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी

छाँव और ठहराव की बातें करें

हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'

किस से अपने घाव की बातें करें।

Sunday, March 8, 2009

मुशायरा- उठ मेरी जान...!

आज हमारे साथ हैं तसलीमा नसरीन, कैफ़ी आज़मी और...तो ख़वातीनो-हज़रात ये नज़्म बेहिचक आज स्त्री-विमर्श का एंथम कही जा सकती है ,बकौल शायर इसे जंगे-आज़ादी में महिलाओं को मर्दों के साथ बढ़ कर शिरक़त कराने के लिए लिखा गयाजनाब कैफ़ी आज़मी से विशेष आग्रह के साथ सुनना चाहेंगे...औरत !


कैफ़ी:-क़ल्बे हस्ती में लरज़ाँ शररे-जंग हैं आज

हौसले वक़्त के और जीस्त के यकरंग हैं आज

आबगीनों में तयां वलवलए संग हैं आज

हुस्न और इश्क हम आवाज़ो हम आहंग हैं आज



जिसमें
जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे


उठ
मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे



तू के बेजान खिलौनों से बहल जाती है

तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है

पाँवजिस राह में रखती है फिसल जाती है

बन के सीमाब हर इक सांचे में ढल जाती है



जीस्त
के आहनी सांचे में भी ढलना है तुझेउठ मेरी जान...




ज़िन्दगी ज़ेहद में है ,सब्र के क़ाबू में नहीं

नब्जे हस्ती का लहू कांपते से आंसू में नहीं

उड़ने खुलने में है नकहत ख़मे गेसू में नहीं


जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं


उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझेउठ मेरी जान ...



गोशे
-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए

फ़र्ज़ का भेष बदलती है क़ज़ा तेरे लिए

क़हर है तेरी हर एक नर्म अदा तेरे लिए

ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए



रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझेउठ मेरी जान...



कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं

तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं

तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है चीज़ जवानी ही नहीं



अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझेउठ मेरी जान...



तोड़ कर रस्म का बुत बन्दे क़दामत से निकल

जोफे इशरत से निकल वहमे नज़ाक़त से निकल

नफ्स के खींचे हुए हल्का-- अज़मत से निकल

ये भी इक क़ैद ही क़ैदे मोहब्बत से निकल



राह का खार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझेउठ मेरी जान...



तू अफ़्लातूनो अरस्तू है तू जोहरा परवीं

तेरे क़ब्ज़े में है गर्दू तेरी ठोकर पे ज़मीं

हाँ उठा ,जल्द उठा ,पा मुक़द्दर से जबीं

मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं


लड़खड़ाएगी कब तक की सम्हालना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ...



मोहतर
मा तसलीमा नसरीन का स्वागत करना चाहूँगा परवीन शाकिर के इन अशआर के साथ कि



पा
बा गुल हैं सब रिहाई की करे तदबीर कौन

दस्तबस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन

दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं

देखना है फेंकता है मुझ पे पहला तीर कौन



मोहतरमा तसलीमा नसरीन

तसलीमा:-कविता का शीर्षक है 'चरित्र'

तुम
लड़की हो


ये बहुत अच्छी तरह याद रखना


तुम जब घर की दहलीज़ पार करोगी


लोग तुम्हें तिरछी नज़र से देखेंगे


तुम
जब गली से होकर गुज़रोगी

लोग तुम्हें गालियाँ देंगे ,सीटियाँ बजायेंगे

तुम जब गली पार कर


मुख्य सड़क पार पहुँचोगी ,


वे तुम्हें 'चरित्रहीन' कहेंगे


गर तुम निर्जीव हो


तो
लौट पडोगी वरना


जैसे जा रही हो जाओगी

और ..अगले शायर हैं ...