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Tuesday, April 7, 2009

गहरे-हल्के,कितने सदमे

अपने सबसे अच्छे नगमे, तेरे लिए मैंने लिखे ।
आँख के पानी पे सपने, तेरे लिए मैंने लिखे ।
रात दिन मेरे साथ चलने की ना जिद कर जिंदगी
राहे -वफ़ा के आईने , तेरे लिए मैंने लिखे ।
उसे फ़िक्र हो ऐसा न था,लेकिन मुझे कहता रहा
गहरे-हल्के,कितने सदमे तेरे लिए मैंने लिखे।
मैं सितारे तोड़ के दूँ तुझे,ये मेरा अहद नहीं मगर
रेत पर अंगुली से झरने ,तेरे लिए मैंने लिखे।
(दीपक तिरुवा)

10 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,सुन्दर रचना लिखी है।

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर रचना है।

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया ... बधाई।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भाई दीपक तिरुआ जी!
"रेत पर अंगुली से झरने ,तेरे लिए मैंने लिखे।"

शानदार अभिव्यक्ति के साथ
आपके शब्द मन पर अपनी
छाप छोड़ने में सफल रहे हैं।
बधाई स्वीकार करें।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ... अच्‍छा लगा पढकर।

Anonymous said...

मैं सितारे तोड़ के दूँ तुझे,ये मेरा अहद नहीं मगर
रेत पर अंगुली से झरने ,तेरे लिए मैंने लिखे।

हरकीरत ' हीर' said...

रात दिन मेरे साथ चलने की ना जिद कर जिंदगी
राहे -वफ़ा के आईने , तेरे लिए मैंने लिखे ।

बहुत खूब.....!!

shama said...

" Retpe ungliyonke jharne maine likhe..." harek panktee to dobara kya likhun...kaas aisaa mai likh patee..
Aap mere blogpe aaye, iske liye shukrguzaar hun..

Deepak Tiruwa said...

हौसला अफ़जाई का शुक्रिया !

vandana gupta said...

kya khoob bhav hain aapke........sach bahut hi gahre.dil par gahri chhap chodte hain.