नए दौर में 'फ़राज़' की शायरी के बहुत से मुरीदों का तआर्रुफ़ उनसे उनकी ग़ज़लों किसी के मक़ते के ज़रिये हुआ है ।मेरे मुआमले में ये मक़ता रहा 'मेहदी हसन साहब' की गायी 'फ़राज़' की मशहूर ग़ज़ल 'शोला था जल बुझा हूँ ....' का ............' कब मुझको ऐतराफ़ -ए-मोहब्बत न था ' फ़राज़ '/कब मैंने यह कहा था सजाएं मुझे न दो ',.....और फिर मेहदी हसन , गुलाम अली ,जगजीत सिंह और दूसरे कई गुलूकारों की आवाज़ के साथ 'फ़राज़ ' से मुलाक़ातों का सिलसिला चल निकला । अहमद फ़राज़ का जाना दरअसल एक दौर का,एक उम्र का जाना है ........कि
''अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें।
जिस तरह सूखे हुए फूल , किताबों में मिलें।''अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें।
अब न वो हैं, न तू है , न वो माज़ी है 'फ़राज़ '
जैसे दो शख्स तमन्ना के , सराबों में मिलें"।
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