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Wednesday, July 8, 2009

कालिदास लौट जाएगा ...

आँख खुलती है सुबह
तो देखता हूँ
सिर के दर्द की तरह
पूरब से उगता ,आग का गोला।
रात की बहस-
दिन के काम याद आते हैं,
चौबीस घंटे के
संकरे से थैले में
क्या-क्या ठूंसना पड़ता है?
यही सोचता हुआ
उठ पडूंगा,
सिगरेट सुल्गाऊंगा ,
पैर में उलझती
चप्पल को लात मारूंगा,
गली में भौंकने वाले
कुत्ते को गोली मारने की
क़सम खाऊंगा।
एक आध पल ढंग से
जीने के लिए
एक -एक सरकते सेकेण्ड पर
कील ठोंकने की
कोशिश करता हूँ
संभावनाएं होनी चाहिए
आदमी में मोहब्बत के लिए,फिर भी....
मैं वो आदमी हूँ जिसने
विद्योतमा से प्यार किया...!
उसने स्कूल में पढ़े ,
,, ...!
कमजोरी ,खतरे ,
गरीबी के साथ
मैं बस्ती में रहा हूँ ,फिर भी...
उसे चलना है समय के साथ
दिन रात के जंगल
मुझे काटने हैं ,फिर भी...
वो विद्योतमा है
चाहे तो
भी सकती है ,
मैं मगर बन सका 'कालिदास'
तो पुरानी ही बस्ती में
लौट जाऊँगा...

3 comments:

Vinay said...

बहुत प्रभावशाली रचना है

---
नये प्रकार के ब्लैक होल की खोज संभावित

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

फिर भी...
वो विद्योतमा है
चाहे तो
आ भी सकती है ,
मैं मगर बन सका 'कालिदास'
तो पुरानी ही बस्ती में
लौट जाऊँगा...

खूबसूरत पंक्तियाँ
बधाई।

vijay kumar sappatti said...

jabardasht poem hai sir ji
padhkar bahut accha laga ..kavita me ek shshakt abhivyakti hai ,jo man ko bha gayi ...

aabhar

vijay

pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com