कोई अफ़सोस न पाला करिये ।
सारे अरमान निकाला करिये॥
दिल ने क्यों शोर किया है इतना,
घर के बच्चे को सम्हाला करिये॥
कच्ची दीवारें ,सूख जाने दो ।
याद पे ज़ोर न डाला करिये॥
फिर कोई ख्वाब चला आयेगा ,
स्याह रातों में उजाला करिये॥
एक सैलाब लिये बैठा हूँ ।
मुझ पे कंकर न उछाला करिये॥
Wednesday, March 4, 2009
कोई अफ़सोस न पाला करिये...! /दीपक तिरुवा
मुशायरा -ले मशालें चल पड़े हैं...!
मुशायरा (cyber) में स्वागत है जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' ,बल्ली सिंह 'चीमा' ,मनोज 'दुर्बी', कैफी आज़मी
साहबऔर .....
तो हाज़रीन शाम की इब्तिदा करते हैं जनाब कैफी आज़मी के स्वागत के साथ...
कैफी:-नज़्म का उन्वान है 'मकान', पेशे-नज़र है
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
ये ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हमने॥
अपनी नस-नस में लिए मेहनते-पैहम की थकन
बंद आंखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आंखों में में खटकती है सियाह तीर लिए ॥
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
हाज़रीन बड़े बरगद की झूलती जड़ से जब ठीक उसके नीचे बरगद का नया पौधा उग आए तो जो सुकून मिलता है उसी की कैफ़ियत लिए आ रहे हैं मनोज 'दुर्बी'
जम्हूरियत चुनाव की बातें करें
जातिगत बिखराव की बातें करें
भूख और अभाव की बातें करें
संघर्ष और बदलाव की बातें करें
तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें
इश्क के फैलाव की बातें करें
इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी
छाँव और ठहराव की बातें करें
हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'
किस से अपने घाव की बातें करें।
ज़ोरदार तालियाँ हो जायें ...कि अगले शायर हैं जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
फ़ैज़ :-नज़्म का उन्वान एक इज्ज़तदार जानवर के नाम पर है,
'कुत्ते'
ये गलियों के बेकार आवारा कुत्ते ,
कि बख्शा गया जिनको ज़ौके-गदाई ।
ज़माने भर कि फटकर सरमाया इनका,
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई॥
न आराम शब् को न रहत सवेरे ,
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे।
जो बिगडें तो इक-दुसरे से लड़ा दो ,
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो ।
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले ,
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले ।
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठायें,
तो इन्सान सब सरकशी भूल जाए ।
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें ,
ये आका़ओं की हड्डियाँ तक चबा लें।
कोई इनको एहसासे जिल्लत दिला दे,
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे ॥
मैं बड़े एहतराम के साथ दावते सुखन देना चाहता हूँ जनाब बल्ली सिंह 'चीमा'
ले मशालें चल पड़े हैं लोग लेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहाँ ये जानकर
अब लडाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा -ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपडी की साँस को
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
देख 'बल्ली'जो सुबह फीकी दिखे है आजकल
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
और अब वक्त -ए-दावत-ए-सुखन उस शायर का है......
साहबऔर .....
तो हाज़रीन शाम की इब्तिदा करते हैं जनाब कैफी आज़मी के स्वागत के साथ...
कैफी:-नज़्म का उन्वान है 'मकान', पेशे-नज़र है
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
ये ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हमने॥
अपनी नस-नस में लिए मेहनते-पैहम की थकन
बंद आंखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आंखों में में खटकती है सियाह तीर लिए ॥
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
हाज़रीन बड़े बरगद की झूलती जड़ से जब ठीक उसके नीचे बरगद का नया पौधा उग आए तो जो सुकून मिलता है उसी की कैफ़ियत लिए आ रहे हैं मनोज 'दुर्बी'
जम्हूरियत चुनाव की बातें करें
जातिगत बिखराव की बातें करें
भूख और अभाव की बातें करें
संघर्ष और बदलाव की बातें करें
तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें
इश्क के फैलाव की बातें करें
इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी
छाँव और ठहराव की बातें करें
हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'
किस से अपने घाव की बातें करें।
ज़ोरदार तालियाँ हो जायें ...कि अगले शायर हैं जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
फ़ैज़ :-नज़्म का उन्वान एक इज्ज़तदार जानवर के नाम पर है,
'कुत्ते'
ये गलियों के बेकार आवारा कुत्ते ,
कि बख्शा गया जिनको ज़ौके-गदाई ।
ज़माने भर कि फटकर सरमाया इनका,
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई॥
न आराम शब् को न रहत सवेरे ,
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे।
जो बिगडें तो इक-दुसरे से लड़ा दो ,
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो ।
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले ,
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले ।
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठायें,
तो इन्सान सब सरकशी भूल जाए ।
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें ,
ये आका़ओं की हड्डियाँ तक चबा लें।
कोई इनको एहसासे जिल्लत दिला दे,
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे ॥
मैं बड़े एहतराम के साथ दावते सुखन देना चाहता हूँ जनाब बल्ली सिंह 'चीमा'
ले मशालें चल पड़े हैं लोग लेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहाँ ये जानकर
अब लडाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा -ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपडी की साँस को
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
देख 'बल्ली'जो सुबह फीकी दिखे है आजकल
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
और अब वक्त -ए-दावत-ए-सुखन उस शायर का है......
Monday, March 2, 2009
मजनूँ को किसने मारा ...?

नाटक का हिस्सा आपकी नज़र
(मजनूं का प्रवेश )
मजनूं :-"इश्क़ अल्लाह- हक़ अल्लाह ,इश्क़ अल्लाह- हक़ अल्लाह ...क्या बात है दोस्त क्यों उदास बैठे हो"?
अनूप :-"क्यों भाई ...तुम हो कौन .... क्यों रोज़-रोज़ परेशान करने आ जाते हो...."?
मजनूं :-"मैं कौन हूँ .....हा ह हा हा ...मैं कौन हूँ ..."?
अनूप :-"ठीक है भाई मान लिया तुम मजनूं हो , मजनूँ कभी मरता नहीं वगैरह ....अगर ऐसा है तो सुन लो तुम्हारा समय बहुत अच्छा था ...तुम्हें कभी नौकरी नहीं ढ़ूँढ़नी पड़ी,तुम बेरोजगार नहीं रहे। ...तुम्हारी लैला इंजिनियर नहीं थी ..निवेदिता की तरह वो तुमसे पाँच साल बड़ी नहीं थी । तुम्हारे डैड ने तुम्हें I.A.S. की कोचिंग में नहीं भेजा था ,हमारे समय में 'इश्क़' इतना आसान नहीं है ,अब तुम बताओ भाई मैं क्या करूँ ....?उसके घरवाले समझते हैं उसकी उम्र बढ़ रही है ...दो -चार महीने में कहीं -न-कहीं उसकी शादी करा दी जायेगी इतने कम समय में कोई अच्छी नौकरी कहाँ से लाऊं ...?...तीन -चार लाख तो बारात में लग जाते हैं ...क्या भीख मांग कर इकठ्ठा करूँ ...?किस मुंह से माँ -बाप से कहूँ कि मेरी शादी रचाओ ...काश कोई छप्पर फटे खूब सारा रुपया आ जाए ..!अब मेरी समझ में आ रहा है दोस्त दुनिया में बने रहने के लिए पैसा होना चाहिए ......पैसा......ये अपनी कवितायें ,कहानियाँ ,कला सिर्फ़ बहलावे कि चीजें हैं ...!तुम्हारे वक्त में इतनी मुसीबतें नहीं थीं ,तुम तो फिर भी नाकाम रहे।
मजनूं :-"इश्क़ अल्लाह ...मेरे तुम्हारे दरम्यान बड़ा अजीब रिश्ता है दोस्त ..!मजनूँ नाम के जिस शख्स की तुम बात कर रहे हो वो तो कभी का मर चुका है ...इस वक्त तो तुम अपने भीतर के मजनूँ से बात कर रहे हो ,ठीक तुम्हारी तरह हर आदमी अकेले में मुझसे बात करता है । तुम्हारी मुश्किलात दरअसल इस फ़ानी दुनिया के हर शख्स की मुश्किलात हैं... ज़रा ईमानदारी से सोचो तुम्हारी अड़चनें और ज़रूरतें तुम्हारे 'इश्क़' की नहीं हैं ,तुम्हारी मोहब्बत की नहीं हैं ,ये तुम्हारी दुनियादारी की अड़चनें -ज़रूरतें हैं । तुम्हारे भीतर के मजनूँ को जो तुम ख़ुद हो निवेदिता के इंजिनियर होने या न होने से या फिर पॉँच-सात साल उसकी उम्र कम-ज़्यादा होने से क्या फर्क पड़ता है ..?..इश्क़ करते रहने के लिए बढ़िया नौकरी या ढेर साड़ी दौलत तुम्हारे इश्क़ की... तुम्हारे भीतर के मजनूँ की ज़रूरत नहीं है इस सब की दरकार तुमारी दुनियादारी को ....."
अनूप :-"चुप रहो..... चुप ..तुम एक नाकाम आदमी हो इसीलिए तुम्हें दुनिया छोड़नी पड़ी ...लेकिन मुझे कामयाब होना है और इसी दुनिया में रहना है ...निवेदिता के साथ "।
मजनूं :-सुन कर अच्छा लगा कि तुम मजनूँ के लिए दुनिया जीतना चाहते हो ...इश्क़ अल्लाह -हक अल्लाह ....,इश्क़ अल्लाह....."। (प्रस्थान)
(मजनूं का प्रवेश )
मजनूं :-"इश्क़ अल्लाह- हक़ अल्लाह ,इश्क़ अल्लाह- हक़ अल्लाह ...क्या बात है दोस्त क्यों उदास बैठे हो"?
अनूप :-"क्यों भाई ...तुम हो कौन .... क्यों रोज़-रोज़ परेशान करने आ जाते हो...."?
मजनूं :-"मैं कौन हूँ .....हा ह हा हा ...मैं कौन हूँ ..."?
अनूप :-"ठीक है भाई मान लिया तुम मजनूं हो , मजनूँ कभी मरता नहीं वगैरह ....अगर ऐसा है तो सुन लो तुम्हारा समय बहुत अच्छा था ...तुम्हें कभी नौकरी नहीं ढ़ूँढ़नी पड़ी,तुम बेरोजगार नहीं रहे। ...तुम्हारी लैला इंजिनियर नहीं थी ..निवेदिता की तरह वो तुमसे पाँच साल बड़ी नहीं थी । तुम्हारे डैड ने तुम्हें I.A.S. की कोचिंग में नहीं भेजा था ,हमारे समय में 'इश्क़' इतना आसान नहीं है ,अब तुम बताओ भाई मैं क्या करूँ ....?उसके घरवाले समझते हैं उसकी उम्र बढ़ रही है ...दो -चार महीने में कहीं -न-कहीं उसकी शादी करा दी जायेगी इतने कम समय में कोई अच्छी नौकरी कहाँ से लाऊं ...?...तीन -चार लाख तो बारात में लग जाते हैं ...क्या भीख मांग कर इकठ्ठा करूँ ...?किस मुंह से माँ -बाप से कहूँ कि मेरी शादी रचाओ ...काश कोई छप्पर फटे खूब सारा रुपया आ जाए ..!अब मेरी समझ में आ रहा है दोस्त दुनिया में बने रहने के लिए पैसा होना चाहिए ......पैसा......ये अपनी कवितायें ,कहानियाँ ,कला सिर्फ़ बहलावे कि चीजें हैं ...!तुम्हारे वक्त में इतनी मुसीबतें नहीं थीं ,तुम तो फिर भी नाकाम रहे।
मजनूं :-"इश्क़ अल्लाह ...मेरे तुम्हारे दरम्यान बड़ा अजीब रिश्ता है दोस्त ..!मजनूँ नाम के जिस शख्स की तुम बात कर रहे हो वो तो कभी का मर चुका है ...इस वक्त तो तुम अपने भीतर के मजनूँ से बात कर रहे हो ,ठीक तुम्हारी तरह हर आदमी अकेले में मुझसे बात करता है । तुम्हारी मुश्किलात दरअसल इस फ़ानी दुनिया के हर शख्स की मुश्किलात हैं... ज़रा ईमानदारी से सोचो तुम्हारी अड़चनें और ज़रूरतें तुम्हारे 'इश्क़' की नहीं हैं ,तुम्हारी मोहब्बत की नहीं हैं ,ये तुम्हारी दुनियादारी की अड़चनें -ज़रूरतें हैं । तुम्हारे भीतर के मजनूँ को जो तुम ख़ुद हो निवेदिता के इंजिनियर होने या न होने से या फिर पॉँच-सात साल उसकी उम्र कम-ज़्यादा होने से क्या फर्क पड़ता है ..?..इश्क़ करते रहने के लिए बढ़िया नौकरी या ढेर साड़ी दौलत तुम्हारे इश्क़ की... तुम्हारे भीतर के मजनूँ की ज़रूरत नहीं है इस सब की दरकार तुमारी दुनियादारी को ....."
अनूप :-"चुप रहो..... चुप ..तुम एक नाकाम आदमी हो इसीलिए तुम्हें दुनिया छोड़नी पड़ी ...लेकिन मुझे कामयाब होना है और इसी दुनिया में रहना है ...निवेदिता के साथ "।
मजनूं :-सुन कर अच्छा लगा कि तुम मजनूँ के लिए दुनिया जीतना चाहते हो ...इश्क़ अल्लाह -हक अल्लाह ....,इश्क़ अल्लाह....."। (प्रस्थान)
Sunday, March 1, 2009
मीर 'दर्द'
मीर 'दर्द' साहब !
फक्कड़ आदमी...सुलतान के दरबार में आना -जाना होता था । सुलतान की तबीयत शायराना थी ,आपसे इस्लाह किया करते थे ।एक बार मीर 'दर्द ' ने कई दिन तक कोई नया क़लाम नहीं सुनाया ,सुलतान पूछें तो कहते ,"कोई नया शेर हुआ ही नहीं ।"
आख़िर एक दिन सुलतान से नहीं रहा गया बोले ,"आप इतने बड़े शायर हो कर महीने में एक शेर नहीं कह सके ,हम तो रोज़ पाखाने में बैठकर ही चार -छः ग़ज़लें कह डालते हैं । "
"हुजूर के क़लाम से बू भी वैसी ही आती है ।" जवाब मिला ।
फक्कड़ आदमी...सुलतान के दरबार में आना -जाना होता था । सुलतान की तबीयत शायराना थी ,आपसे इस्लाह किया करते थे ।एक बार मीर 'दर्द ' ने कई दिन तक कोई नया क़लाम नहीं सुनाया ,सुलतान पूछें तो कहते ,"कोई नया शेर हुआ ही नहीं ।"
आख़िर एक दिन सुलतान से नहीं रहा गया बोले ,"आप इतने बड़े शायर हो कर महीने में एक शेर नहीं कह सके ,हम तो रोज़ पाखाने में बैठकर ही चार -छः ग़ज़लें कह डालते हैं । "
"हुजूर के क़लाम से बू भी वैसी ही आती है ।" जवाब मिला ।
Saturday, February 28, 2009
ताजमहल और नमक ...!/दीपक तिरूवा
तुम सुनोगी तो हंसोगी,
मेरे दोस्त शाहजहाँ ने
ताजमहल बनवाया है ।
तुम्हें यक़ीनन डाह नहीं होगी
किसी मुमताज से।
तुम जानती हो मैंने तुम्हें
दाल में नमक की तरह चाहा है।
हम आम-अवाम ,
किसी महँगी तामीर से
अपनी मोहब्बत के
अलग या ख़ास होने का
दावा नहीं करते लेकिन....
काँप उठेगा शाहजहाँ गर
संगेमरमर की खदानों की तरफ़
मैं निकलूं ।
और मुमताज
रोज़ जला करती है तुमसे
आख़िर
दाल में नमक तो उसे भी चाहिए ....!
मेरे दोस्त शाहजहाँ ने
ताजमहल बनवाया है ।
तुम्हें यक़ीनन डाह नहीं होगी
किसी मुमताज से।
तुम जानती हो मैंने तुम्हें
दाल में नमक की तरह चाहा है।

हम आम-अवाम ,
किसी महँगी तामीर से
अपनी मोहब्बत के
अलग या ख़ास होने का
दावा नहीं करते लेकिन....
काँप उठेगा शाहजहाँ गर
संगेमरमर की खदानों की तरफ़
मैं निकलूं ।
और मुमताज
रोज़ जला करती है तुमसे
आख़िर
दाल में नमक तो उसे भी चाहिए ....!
Wednesday, February 25, 2009
बूढा ...!/दीपक तिरुवा
चीथडा़-चीथडा़ एक बूढा ,
आँखें टँगीं हैं क्षितिज पर ।
झुर्रियों में दफ़्न अतीत,
वर्तमान घावों से रिस रहा है ।
जा-ब-जा उधड़ी हुई चमड़ी की
पतली तह के नीचे
ये बूढा सफ़ेद हड्डियों का
एक जंगल रखता है।
बेतौर-बेतरतीब बढ़ी हुयी हड्डियाँ
हड्डियाँ त्रिशुलों में ढल गई हैं ।
बन गई हैं तमंचे ,तलवार और बम।
और बूढे का अपना ही कंकाल
रहे सहे ढांचे को नोच रहा है ,
काट रहा है ,और जला रहा है।
आँखें टँगीं हैं क्षितिज पर ।
झुर्रियों में दफ़्न अतीत,
वर्तमान घावों से रिस रहा है ।
जा-ब-जा उधड़ी हुई चमड़ी की
पतली तह के नीचे
ये बूढा सफ़ेद हड्डियों का
एक जंगल रखता है।
बेतौर-बेतरतीब बढ़ी हुयी हड्डियाँ
हड्डियाँ त्रिशुलों में ढल गई हैं ।
बन गई हैं तमंचे ,तलवार और बम।
और बूढे का अपना ही कंकाल
रहे सहे ढांचे को नोच रहा है ,
काट रहा है ,और जला रहा है।
Friday, February 20, 2009
औरत... /मीना पाण्डेय
मैं चलती हूँ /जलती हूँ ।
तड़पती हूँ /दिन -रात ।
मैं ,सुबह हाथ /दिन में मस्तिष्क /रात में देह होकर/
भोजन ,कमाई.... और कभी स्वयं को परोसती हूँ उसके आगे।
मैं सिर्फ़ मैं बनने को/ बड़े सवेरे उठ कर तैयार करती हूँ,
उसकी ज़रूरत का सारा सामान ,
जब वो बिस्तर पर हाथ -पैर पसारे गर्म सासें भरता है ।
वो अपनी दुनिया के हि
साब से /
मांग करता है चाय की एक गर्म प्याली की,
देरी होने पर कई तरीके से/
पुष्टि करता है अपने पौरुष की ।
हम दोनों साथ -साथ घर की चौखट लाँघते हैं/
फाइलों में खोजने देश का भविष्य..../
लेकिन घर पहुँचने पर /
साडी का पल्लू कमर में मैं ही खसोटती हूँ
फिर भी उसके सिर्फ़ साथ चलने को मैं सबसे तेज़ भागती हूँ ।
तड़पती हूँ /दिन -रात ।
मैं ,सुबह हाथ /दिन में मस्तिष्क /रात में देह होकर/
भोजन ,कमाई.... और कभी स्वयं को परोसती हूँ उसके आगे।
मैं सिर्फ़ मैं बनने को/ बड़े सवेरे उठ कर तैयार करती हूँ,
उसकी ज़रूरत का सारा सामान ,
जब वो बिस्तर पर हाथ -पैर पसारे गर्म सासें भरता है ।
वो अपनी दुनिया के हि

मांग करता है चाय की एक गर्म प्याली की,
देरी होने पर कई तरीके से/
पुष्टि करता है अपने पौरुष की ।
हम दोनों साथ -साथ घर की चौखट लाँघते हैं/
फाइलों में खोजने देश का भविष्य..../
लेकिन घर पहुँचने पर /
साडी का पल्लू कमर में मैं ही खसोटती हूँ
फिर भी उसके सिर्फ़ साथ चलने को मैं सबसे तेज़ भागती हूँ ।
Subscribe to:
Posts (Atom)