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Saturday, March 7, 2009

मुशायरा -सारा क़ुरान रट गई दुनिया..!

जनाब इब्राहीम 'अश्क' का मुशायरा (साइबर) में मैं स्वागत करता हूँ जनाब 'अश्क'

अपने हाथों से कट गई दुनिया

कितने हिस्सों में बंट गई दुनिया

अस्ल मानी कभी नहीं समझी

सारा क़ुरान रट गई दुनिया ...

हमारे दौर की शायरी को रूमानियत से लबरेज़ रखने वाले जनाब क़तील शिफाई साहब का स्वागत करना चाहूँगा जावेद अख्तर साहब के इस शेर के साथ कि ...

सफ़र इतना रायगाँ तो जा,

सही मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे

जनाब क़तील शिफाई ....

जिसे हम साफ़ पहचानें वही मंज़र नहीं मिलता

यहाँ साये तो मिलते हैं कभी पैकर नहीं मिलता

हमेशा ताज़ा दम उसके मोहल्ले तक पहुँचता हूँ

थकन उस वक़्त होती है वो जब घर पर नहीं मिलता

उस मालूम है उसका तन, सोने से महंगा है

जभी तो वो पहने हुए जेवर नहीं मिलता

परश्तिश कि तमन्ना है मगर हाय री मज़बूरी

सनम जिससे तराशा जाए वही पत्थर नहीं मिलता

अगली दावत सुखन के साथ यकीनन झूम उठियेगा ...कि अगले शायर हैं जनाब मजाज़

ख़ुद,दिल में रह के आँख से परदा करे कोई

हाँ ,लुत्फ़ जब है पा के भी, ढूंढा करे कोई

या तो किसी को ज़ुर्रते दीदार ही हो ,

या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई

तुमने तो हुक़्मे तर्क़े तमन्ना सुना दिया ,

किस दिल से आह तर्क़े तमन्ना करे कोई


मैं अहमद 'फ़राज़' के इस शेर के साथ कि...

जिसको देखो वही , जंजीर--लगता है

शहर का शहर हुआ दाखिले-ज़िन्दाँ जानां

दावत--सुखन दे रहा हूँ जनाब अली सरदार जाफ़री ...

जाफ़री :-नज़्म मुख्तसर सी है 'चाँद को रुखसत कर दो'

मेरे दरवाज़े से अब

चाँद को रुखसत कर दो

साथ आया है तुम्हारे

जो तुम्हारे घर से ,

अपने माथे से हटा दो

ये चमकता हुआ ताज

फेंक दो जिस्म से

किरणों का सुनहरी जेवर

तुम ही तनहा मेरे ग़मखाने में

सकती हो ,कि एक उम्र से

तुम्हारे ही लिए रक्खा है

मेरे
जलते हुए सीने का

दहकता हुआ चाँद

दिले खूँगश्ता का हँसता हुआ

खुशरंग गुलाब

और अगले शायर हैं ..

Friday, March 6, 2009

प्यास दरिया है ...!/दीपक तिरुवा

दर्द भी एक बहाना है , मुस्कुराने का


प्यास
दरिया है पानी के डूब जाने का


लहू निगाह में रहता है रात-दिन अपनी


हौसला
कौन करे हमको आजमाने का


पुराने इश्क से सीखा है बहुत-कुछ हमने


अब इरादा है मगर दूर तलक जाने का


मैं
यहाँ तक की हवाओं का ऐतबार करूं


यकीं बहुत है तुम्हारे भी लौट आने का


फिर से मौसम में आहट है नई बारिश की


जी बहुत होता है ऐसे में गुनगुनाने का

Wednesday, March 4, 2009

कोई अफ़सोस न पाला करिये...! /दीपक तिरुवा


कोई अफ़सोस पाला करिये

सारे अरमान निकाला करिये॥

दिल ने क्यों शोर किया है इतना,

घर
के बच्चे को सम्हाला करिये॥

कच्ची
दीवारें ,सूख जाने दो

याद
पे ज़ोर न डाला करिये॥

फिर कोई ख्वाब चला आयेगा ,

स्याह
रातों में उजाला करिये॥

एक
सैलाब लिये बैठा हूँ

मुझ
पे कंकर उछाला करिये॥

मुशायरा -ले मशालें चल पड़े हैं...!

मुशायरा (cyber) में स्वागत है जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' ,बल्ली सिंह 'चीमा' ,मनोज 'दुर्बी', कैफी आज़मी
साहबऔर .....

तो हाज़रीन शाम की इब्तिदा करते हैं जनाब
कैफी आज़मी के स्वागत के साथ...

कैफी:-नज़्म का उन्वान है 'मकान', पेशे-नज़र है

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है

आज की रात फुटपाथ पे नींद आएगी

सब उठें,मैं भी उठूँ तुम भी उठो,तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥


ये
ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी

पाँव
जब टूटती शाखों से उतारे हमने

उन मकानों को ख़बर है मकीनों को ख़बर

उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हमने॥

अपनी नस-नस में लिए मेहनते-पैहम की थकन

बंद आंखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए

दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक

रात आंखों में में खटकती है सियाह तीर लिए

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात फ़ुटपाथ पे नींद आएगी

सब उठें,मैं भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥

हाज़रीन बड़े बरगद की झूलती जड़ से जब ठीक उसके नीचे बरगद का नया पौधा उग आए तो जो सुकून मिलता है उसी की कैफ़ियत लिए रहे हैं मनोज 'दुर्बी'


जम्हूरियत
चुनाव की बातें करें

जातिगत बिखराव की बातें करें

भूख और अभाव की बातें करें

संघर्ष
और बदलाव की बातें करें

तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें

इश्क के फैलाव की बातें करें

इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी

छाँव और ठहराव की बातें करें

हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'

किस से अपने घाव की बातें करें।

ज़ोरदार तालियाँ हो जायें ...कि अगले शायर हैं जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

फ़ैज़ :-नज़्म का उन्वान एक इज्ज़तदार जानवर के नाम पर है,
'
कुत्ते'

ये गलियों के बेकार आवारा कुत्ते ,
कि बख्शा गया जिनको ज़ौके-गदाई

ज़माने भर कि फटकर सरमाया इनका,
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई

आराम शब् को रहत सवेरे ,
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे

जो बिगडें तो इक-दुसरे से लड़ा दो ,
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो

ये हर एक की ठोकरें खाने वाले ,
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले

ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठायें,
तो इन्सान सब सरकशी भूल जाए

ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें ,
ये आका़ओं की हड्डियाँ तक चबा लें

कोई इनको एहसासे जिल्लत दिला दे,
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

मैं बड़े एहतराम के साथ दावते सुखन देना चाहता हूँ जनाब बल्ली सिंह 'चीमा'

ले मशालें चल पड़े हैं लोग लेरे गाँव के

अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के

कह रही है झोपडी पूछते हैं खेत भी

कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के

बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहाँ ये जानकर

अब
लडाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा --इंक़लाब

हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के

एकता से बल मिला है झोपडी की साँस को

आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के

देख 'बल्ली'जो सुबह फीकी दिखे है आजकल

लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के

और अब वक्त --दावत--सुखन उस शायर का है......

Monday, March 2, 2009

मजनूँ को किसने मारा ...?


नाटक का हिस्सा आपकी नज़र
(मजनूं का प्रवेश )
मजनूं :-"इश्क़ अल्लाह- हक़ अल्लाह ,इश्क़ अल्लाह- हक़ अल्लाह ...क्या बात है दोस्त क्यों उदास बैठे हो"?
अनूप :-"क्यों भाई ...तुम हो कौन .... क्यों रोज़-रोज़ परेशान करने आ जाते हो...."?
मजनूं :-"मैं कौन हूँ .....हा ह हा हा ...मैं कौन हूँ ..."?
अनूप :-"ठीक है भाई मान लिया तुम मजनूं हो , मजनूँ कभी मरता नहीं वगैरह ....अगर ऐसा है तो सुन लो तुम्हारा समय बहुत अच्छा था ...तुम्हें कभी नौकरी नहीं ढ़ूँढ़नी पड़ी,तुम बेरोजगार नहीं रहे ...तुम्हारी लैला इंजिनियर नहीं थी ..निवेदिता की तरह वो तुमसे पाँच साल बड़ी नहीं थी । तुम्हारे डैड ने तुम्हें I.A.S. की कोचिंग में नहीं भेजा था ,हमारे समय में 'इश्क़' इतना आसान नहीं है ,अब तुम बताओ भाई मैं क्या करूँ ....?उसके घरवाले समझते हैं उसकी उम्र बढ़ रही है ...दो -चार महीने में कहीं -न-कहीं उसकी शादी करा दी जायेगी इतने कम समय में कोई अच्छी नौकरी कहाँ से लाऊं ...?...तीन -चार लाख तो बारात में लग जाते हैं ...क्या भीख मांग कर इकठ्ठा करूँ ...?किस मुंह से माँ -बाप से कहूँ कि मेरी शादी रचाओ ...काश कोई छप्पर फटे खूब सारा रुपया आ जाए ..!अब मेरी समझ में आ रहा है दोस्त दुनिया में बने रहने के लिए पैसा होना चाहिए ......पैसा......ये अपनी कवितायें ,कहानियाँ ,कला सिर्फ़ बहलावे कि चीजें हैं ...!तुम्हारे वक्त में इतनी मुसीबतें नहीं थीं ,तुम तो फिर भी नाकाम रहे।
मजनूं :-"इश्क़ अल्लाह ...मेरे तुम्हारे दरम्यान बड़ा अजीब रिश्ता है दोस्त ..!मजनूँ नाम के जिस शख्स की तुम बात कर रहे हो वो तो कभी का मर चुका है ...इस वक्त तो तुम अपने भीतर के मजनूँ से बात कर रहे हो ,ठीक तुम्हारी तरह हर आदमी अकेले में मुझसे बात करता है । तुम्हारी मुश्किलात दरअसल इस फ़ानी दुनिया के हर शख्स की मुश्किलात हैं... ज़रा ईमानदारी से सोचो तुम्हारी अड़चनें और ज़रूरतें तुम्हारे 'इश्क़' की नहीं हैं ,तुम्हारी मोहब्बत की नहीं हैं ,ये तुम्हारी दुनियादारी की अड़चनें -ज़रूरतें हैं । तुम्हारे भीतर के मजनूँ को जो तुम ख़ुद हो निवेदिता के इंजिनियर होने या न होने से या फिर पॉँच-सात साल उसकी उम्र कम-ज़्यादा होने से क्या फर्क पड़ता है ..?..इश्क़ करते रहने के लिए बढ़िया नौकरी या ढेर साड़ी दौलत तुम्हारे इश्क़ की... तुम्हारे भीतर के मजनूँ की ज़रूरत नहीं है इस सब की दरकार तुमारी दुनियादारी को ....."
अनूप :-"चुप रहो..... चुप ..तुम एक नाकाम आदमी हो इसीलिए तुम्हें दुनिया छोड़नी पड़ी ...लेकिन मुझे कामयाब होना है और इसी दुनिया में रहना है ...निवेदिता के साथ "।
मजनूं :-सुन कर अच्छा लगा कि तुम मजनूँ के लिए दुनिया जीतना चाहते हो ...इश्क़ अल्लाह -हक अल्लाह ....,इश्क़ अल्लाह....."। (प्रस्थान)

Sunday, March 1, 2009

मीर 'दर्द'

मीर 'दर्द' साहब !
फक्कड़ आदमी...सुलतान के दरबार में आना -जाना होता थासुलतान की तबीयत शायराना थी ,आपसे इस्लाह किया करते थेएक बार मीर 'दर्द ' ने कई दिन तक कोई नया क़लाम नहीं सुनाया ,सुलतान पूछें तो कहते ,"कोई नया शेर हुआ ही नहीं ।"
आख़िर एक दिन सुलतान से नहीं रहा गया बोले ,"आप इतने बड़े शायर हो कर महीने में एक शेर नहीं कह सके ,हम तो रोज़ पाखाने में बैठकर ही चार -छः ग़ज़लें कह डालते हैं । "
"हुजूर के क़लाम से बू भी वैसी ही आती है ।" जवाब मिला