Monday, July 6, 2009
औरत की निगाह में राजेंद्र यादव...!
"आप कोई भी जीवन पाते कुंठा के शिकार ही रहते....." /यानी 'अ' चूँकि राजेंद्र यादव है इसीलिए वह कुंठित है। राजेन्द्र यादव की आत्मकथा 'मुड़ -मुड़ के देखता हूँ की कंचन जी ने अपने ब्लॉग 'ह्रदय गवाक्ष' पर मुड़ मुड़ के देखता हूँ-राजेंद्र यादव नामक पोस्ट में समीक्षा की है मैं आपके विचार से अपनी असहमति दर्ज करना चाहूँगा कंचनजी !मन्नू भंडारी की आत्मकथा ' एक कहानी ये भी ' के मुताबिक "अ चूँकि कुंठित था इसलिए 'राजेंद्र यादव' हो गया । " आपने भी उनकी कुंठा को ही उनके व्यक्तित्व का केन्द्र माना है बल्कि आप तो 'मन्नू जी' से भी आगे निकल गई हैं ....कृपया राजेंद्र यादव के वृहद् साहित्य कर्म को सामने रखिये उनकी वैचारिक प्रखरता और ओजस्वी लेखनी ने कई दशकों में बौद्धिकता के बीज बोए हैं /अन्धविश्वास ,अवैज्ञानिकता,धर्मान्धता ,लिंग असहिष्णुता की जड़ों में मट्ठा डाला है । स्त्री के सन्दर्भ में उनकी मानसिकता का परीक्षण आत्मकथा /आत्मकथांश से क्यों किया जाए जबकि इस विषय पर विस्तार से 'आदमी की निगाह में औरत' नामक उनकी किताब मौजूद है ,जिसमें बड़ा यथार्थवादी दृष्टिकोण है....यह किताब हिन्दी साहित्य में Simon De Beauvoir की 'सेकंड सैक्स' और 'Germaine Greer' की Female Eunuch जैसी किताब की कमी को पूरा करती है ....सारा आकाश ,अनदेखे अनजान पुल,शह और मात जैसे उपन्यास ,ढोल जैसी बहुतेरी कहानियाँ और 'हंस' जैसी पत्रिका का संपादन जिसे केवल उनके संपादकीय 'तेरी मेरी उसकी बात' के लिए भी पढ़ा जा सकता है...... इस सब के बावजूद आप उन्हें मात्र कुंठित व्यक्ति के रूप में 'कन्क्लूड' कर दें तो यह ज्यादती है ।कुंठा सर्व-व्यापी है पर सभी राजेंद्र यादव नहीं हो जाते ...स्वार्थ-हीन स्नेह को आपने कुंठा की दवा कहा है ....स्नेह अच्छी चीज़ है कंचन जी लेकिन कुंठा व्यक्ति का भीतरी मसला है और स्नेह यदि पाना है तो एक बाहरी मसला है इसलिए इसमें अनिश्चितता होगी और स्नेह दिया जाना है तो कुंठा की दवा के रूप में यह प्रतिफल चाहेगा इसलिए निःस्वार्थ होने का सवाल ही नहीं है । कंचन जी कुंठा से निकलने का सर्वोत्तम उपाय है स्वयं को रचनात्मक कार्यों में लगाना ....और इस मामले में आप राजेंद्र यादव के सामने किसे खड़ा करेंगी...?
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8 comments:
दीपक जी,
आपने सुश्री कंचन जी की समीक्षा के निष्कर्ष पर जो असहमति व्यक्त की थी उसे आपके ब्लॉग पर विस्तार से समझ पाया।
एक अच्छी और तथ्यपरक पोस्ट।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
दीपक जी
प्रत्येक व्यक्ति अपने विचार अपनी सूझ बूझ ओर अपने द्वारा अर्जित ज्ञान ओर पठन पाठन से अर्जित करता है ....जाहिर है हम आप सभी किसी बिंदु पर सहमत -असहमत हो सकते है .खुद मै उनके द्वारा संपादित ओर मुशराफ़ आलम जौकी द्वारा सह संपादित" मुस्लिम जगत की बागी औरते "पढ़ रहा हूँ...ओर कमलेश्वर ,राकेश ओर उनकी तिकडी को खूब पढ़ा है ...
आपसे निवेदन है ही की जनवरी अंक का "कथादेश "जो पूरा मन्नू भंडारी पर आधारित है वे पढ़े ....दूसरा मेरा ये कहना है की कोई भी व्यक्ति अपनी निजी जिम्मेदारियों से सिर्फ इसलिए बचकर नहीं निकल सकता क्यूंकि वो बहुत अच्छा लिखता है .शायद यहाँ उन्हें बतोर व्यक्ति आँका जा रहा था बतोर लेखक नहीं.
हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में यह पति पत्नी विवाद बहुत हो चुका है मेरा निवेदन है कि अब ब्लॉग को इससे बक्षा जाये . अब पठकों को भी यह विवाद उबाऊ लगने लगा है
श्रीमान नेचरिका जी आपके विचार से तो नही मगर आपके शीर्षक से मेरी असहमति ही नही विरोध भी है। कृपया इसे बदल लें और इस विरोध के पीछे तथ्यों को पढ़ें
http://kanchanc.blogspot.com/2009/07/blog-post_07.html औरत नही पाठक नेचरिका जी
औरत कोई कमतर संबोधन नहीं है मदाम !अगर आप मुझे आदमी कहें तो मैं केवल यही कहूँगा आप मेरा नाम भी ले सकती थी।
(मैं आपकी आज्ञा के सम्मान में शीर्षक में बदलाव कर रहा हूँ )
पाठकों से अनुरोध है की कृपया naturica पर 'औरत की निगाह में राजेंद्र यादव' पोस्ट का शीर्षक सुधारोपरांत
/राजेंद्र यादव का 'एसिड टेस्ट'/ पढ़ें।
बिलकुल ......राजेंद्र यादव के सामने आप किसे खडा करेंगे ?
waki rajendr yadv ka koi jwab nhi.
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