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Wednesday, April 29, 2009

अब उसी दरिया को पानी चाहिए

सुर्ख सुबह शाम सुहानी चाहिए ।
जिंदगी भर खींचा-तानी चाहिए॥
काट कर पर्वत भगीरथ की तरह
काम की गंगा बहानी चाहिए ॥
कल जहाँ रुकते थे प्यासे काफिले
अब उसी दरिया को पानी चाहिए॥
सींच डाले जो ज़मीं को खून से ,
इस धरा को वो जवानी चाहिए ॥
मंदिरों में क़ैद ईश्वर को 'मनोज'
ख़ुद मदद अब आसमानी चाहिए॥
(मनोज दुर्बी)

Tuesday, April 7, 2009

गहरे-हल्के,कितने सदमे

अपने सबसे अच्छे नगमे, तेरे लिए मैंने लिखे ।
आँख के पानी पे सपने, तेरे लिए मैंने लिखे ।
रात दिन मेरे साथ चलने की ना जिद कर जिंदगी
राहे -वफ़ा के आईने , तेरे लिए मैंने लिखे ।
उसे फ़िक्र हो ऐसा न था,लेकिन मुझे कहता रहा
गहरे-हल्के,कितने सदमे तेरे लिए मैंने लिखे।
मैं सितारे तोड़ के दूँ तुझे,ये मेरा अहद नहीं मगर
रेत पर अंगुली से झरने ,तेरे लिए मैंने लिखे।
(दीपक तिरुवा)

Friday, April 3, 2009

ज़िन्दगी-ज़िन्दगी !(अखंड)

मैं मरना चाहता था ,
मैंने देखे मौत ,दुःख, निराशा
पस्तहिम्मत ,मतलब परस्त लोग
ज़िन्दगी समझौतों में जीते लोग,
बिखरी ज़िन्दगी ,
सबकुछ जीवन विहीन.....
मैं अब जीना चाहता हूँ
अनंत समय तक
मैंने देखे जीने को कुलबुलाते लोग
ज़िन्दगी के पहलू ,दुनिया की सुन्दरता
बच्चों के हाथों की कोमलता
महसूस किया मैंने
हर इन्सान में छुपी संघर्ष की अदम्य इच्छा को
सच ,अब मैं बिल्कुल मरना नहीं चाहता
मौत अब तू मेरे क़रीब
मैं तेरे चेहरे पर जीवन के
गीत लिखना चाहता हूँ

Wednesday, March 25, 2009

अजनबी ...!

फिर उसके बाद किसी
बंजर रिश्ते के हम
दो सिरे रह गए....
तुम ले चले
मुझमें से हर मुमकिन शै ,
और मैं साये को उठा लाया
एक आदमी वहीँ छोड़ कर ।
आज लेकिन शबे तन्हाई में
दौड़ा आया है वही आदमी
दूर कहीं से ....
उसी रिश्ते का रेज़ा-रेज़ा,
मरते ताल्लुक के आखरी लम्हे लेकर ।
अबके सोचा है
इसे 'अजनबी' कह दूँ ....
(*शै=वस्तु *शबे तन्हाई=एकाकी रात्रि *रेज़ा-रेज़ा=कण-कण*ताल्लुक=सम्बन्ध)
/....दीपक तिरुवा

Thursday, March 19, 2009

भूख...!/दुर्बी

फ़ाकों के क्या हाल सुनाऊँ ...?
मेरे घर का सूना चूल्हा
कब से मुझको ताक रहा है ।
घर के सारे टीन -कनस्तर
दाना -दाना तरस रहे हैं ।
सुख-दुःख के साथी थे चूहे ,
वे भी तनहा छोड़ चुके हैं ।
गलियों का आवारा कुत्ता तक
उम्मीदें छोड़ चुका है ।
सुबह शाम का उसका आना,
जाने
कब का छूट चुका है ।
मिलने पर भी उसकी दुम अब ,
पहले जैसी कब हिलती है ?
वो अपने अन्दर के कुत्ते को
मार चुका है और ढूंढ़ रहा है
अपने भीतर के मानव को...!
उसने भी बस्ती में जीना सीख लिया है ।

Wednesday, March 18, 2009

मैं, तुम और शायरी...!/दीपक तिरुवा

मैं, तुम और शायरी...
तसव्वुर की सैरगाहों में ,धुंध पर चलते रहे।
सोया किए ओढ़ कर ,जुल्फों की सियाह रातें ।
देखा किए साझा ,मुस्तक़्बिल के हसीन ख़्वाब।
ग़मे-हस्ती,ग़मे-सामां अशआर में ढलते रहे ।
मैं,तुम और शायरी...
इक दूसरे के ज़ेहन की रानाइयों में डूबे थे ...
कि अचानक जल उठे वेद,
अज़ान का दम घुटने लगा
सरे-रोज़, सरे -बाज़ार कुछ लोगों ने ,
दो मजहबों की गर्दनें काट दीं और...
खून के छींटे गिरे हमारे दामन पर ,
मैं,तुम और शायरी
अब ये किस दोराहे पर खड़े हैं....?
(तसव्वुर=कल्पना, मुस्तक़्बिल=भविष्य ,अशआर =शेर का बहुवचन, ज़ेहन=मष्तिष्क , रानाइयां =सुन्दरता)

Tuesday, March 10, 2009

जम्हूरियत चुनाव की बातें करें/मनोज 'दुर्बी'


जम्हूरियत चुनाव की बातें करें

जातिगत बिखराव की बातें करें

भूख और अभाव की बातें करें

संघर्ष
और बदलाव की बातें करें

तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें

इश्क के फैलाव की बातें करें

इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी

छाँव और ठहराव की बातें करें

हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'

किस से अपने घाव की बातें करें।