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Friday, February 20, 2009

औरत... /मीना पाण्डेय

मैं चलती हूँ /जलती हूँ ।
तड़पती हूँ /दिन -रात ।
मैं ,सुबह हाथ /दिन में मस्तिष्क /रात में देह होकर/
भोजन ,कमाई.... और कभी स्वयं को परोसती हूँ उसके आगे।
मैं सिर्फ़ मैं बनने को/ बड़े सवेरे उठ कर तैयार करती हूँ,
उसकी ज़रूरत का सारा सामान ,
जब वो बिस्तर पर हाथ -पैर पसारे गर्म सासें भरता है ।
वो अपनी दुनिया के हिसाब से /
मांग करता है चाय की एक गर्म प्याली की,
देरी होने पर कई तरीके से/
पुष्टि करता है अपने पौरुष की ।
हम दोनों साथ -साथ घर की चौखट लाँघते हैं/
फाइलों में खोजने देश का भविष्य..../
लेकिन घर पहुँचने पर /
साडी का पल्लू कमर में मैं ही खसोटती हूँ
फिर भी उसके सिर्फ़ साथ चलने को मैं सबसे तेज़ भागती हूँ ।

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