शायद bomb को फटने से पहले ऐसा ही लगता होगा ...! एक कोठरी जहाँ से मैं बाहर की दुनिया ख़्वाब की तरह देखता था ,न कुछ छू सकता था न बात कर पाता था ,मेरी उम्र का एक बड़ा हिस्सा निगल गयी । मेरी आवाज़ें अस्वीकृत होकर मेरे पास लौटती रहीं ,इस लिए कि मैं काँच की कोठरी में रहता था । जिस किसी ने ये पीड़ा समझी उसे अंगुली पर गिन लिया ,आज तक लेकिन एक भी हाथ की सारी अंगुलियाँ नहीं गिन सका ।
इन चीखते बेबस सालों में अकेलेपन ने क्या - क्या छीना ? हिसाब नहीं । हाँ ,विद्रोह दिया है , पहला विद्रोह किया आस्था के खिलाफ़ ...फिर कमजोरी के ... अस्वीकृति की थोपी हुई नियति के ...कुंठा के ...और अंततः .....! फिर कोठरी एक दिन ढह गयी । तुम आये न जाने कहाँ से ऐसा कुछ लिये जो काँच से उतना ही अलग था जितना हीरा। काँच की कोठरी तो टुकड़ों में बिखर गयी, अब लेकिन काँच की इन किरिंचों पर चलना है ........ !
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