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Wednesday, February 25, 2009

बूढा ...!/दीपक तिरुवा

चीथडा़-चीथडा़ एक बूढा ,
आँखें टँगीं हैं क्षितिज पर ।
झुर्रियों में
दफ़्न अतीत,
वर्तमान घावों से रिस रहा है ।
जा-ब-जा उधड़ी हुई चमड़ी की
पतली तह के नीचे
ये बूढा सफ़ेद हड्डियों का
एक जंगल रखता है।
बेतौर-बेतरतीब बढ़ी हुयी हड्डियाँ
हड्डियाँ त्रिशुलों में ढल गई हैं ।
बन गई हैं तमंचे ,तलवार और बम।
और बूढे का अपना ही कंकाल
रहे सहे ढांचे को नोच रहा है ,
काट रहा है ,और जला रहा है।

7 comments:

Sanjay Grover said...

चीथडा़-चीथडा़ एक बूढा ,
आँखें टँगीं हैं क्षितिज पर ।
झुर्रियों में दफ़्न अतीत,
वर्तमान घावों से रिस रहा है ।

बन गई हैं तमंचे ,तलवार और बम।

और बूढे का अपना ही कंकाल
रहे सहे ढांचे को नोच रहा है ,
काट रहा है ,और जला रहा है।

अतीत से इंस कदर बुरी तरह जकड़ा यह बूढ़ा कौन है ?
’’मैंने पूछा नाम तो बोला कि.....

Anonymous said...

आपका हिंदी ब्लॉगजगत में स्वागत है।

हिन्दीवाणी said...

अच्छी कविता। हमारे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई\

रचना गौड़ ’भारती’ said...

ब्लोगिंग जगत मे आपका स्वागत है
सुंदर रचना के लिए शुभकामनाएं
भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
लिखते रहि‌ए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
मेरे द्वारा संपादित पत्रिका देखें
www.zindagilive08.blogspot.com
आर्ट के लि‌ए देखें
www.chitrasansar.blogspot.com

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

uf! narayan narayan

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...
This comment has been removed by a blog administrator.