मुशायरा (cyber) में स्वागत है जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' ,बल्ली सिंह 'चीमा' ,मनोज 'दुर्बी', कैफी आज़मी
साहबऔर .....
तो हाज़रीन शाम की इब्तिदा करते हैं जनाब कैफी आज़मी के स्वागत के साथ...
कैफी:-नज़्म का उन्वान है 'मकान', पेशे-नज़र है
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
ये ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हमने॥
अपनी नस-नस में लिए मेहनते-पैहम की थकन
बंद आंखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आंखों में में खटकती है सियाह तीर लिए ॥
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
हाज़रीन बड़े बरगद की झूलती जड़ से जब ठीक उसके नीचे बरगद का नया पौधा उग आए तो जो सुकून मिलता है उसी की कैफ़ियत लिए आ रहे हैं मनोज 'दुर्बी'
जम्हूरियत चुनाव की बातें करें
जातिगत बिखराव की बातें करें
भूख और अभाव की बातें करें
संघर्ष और बदलाव की बातें करें
तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें
इश्क के फैलाव की बातें करें
इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी
छाँव और ठहराव की बातें करें
हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'
किस से अपने घाव की बातें करें।
ज़ोरदार तालियाँ हो जायें ...कि अगले शायर हैं जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
फ़ैज़ :-नज़्म का उन्वान एक इज्ज़तदार जानवर के नाम पर है,
'कुत्ते'
ये गलियों के बेकार आवारा कुत्ते ,
कि बख्शा गया जिनको ज़ौके-गदाई ।
ज़माने भर कि फटकर सरमाया इनका,
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई॥
न आराम शब् को न रहत सवेरे ,
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे।
जो बिगडें तो इक-दुसरे से लड़ा दो ,
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो ।
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले ,
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले ।
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठायें,
तो इन्सान सब सरकशी भूल जाए ।
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें ,
ये आका़ओं की हड्डियाँ तक चबा लें।
कोई इनको एहसासे जिल्लत दिला दे,
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे ॥
मैं बड़े एहतराम के साथ दावते सुखन देना चाहता हूँ जनाब बल्ली सिंह 'चीमा'
ले मशालें चल पड़े हैं लोग लेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहाँ ये जानकर
अब लडाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा -ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपडी की साँस को
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
देख 'बल्ली'जो सुबह फीकी दिखे है आजकल
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
और अब वक्त -ए-दावत-ए-सुखन उस शायर का है......
साहबऔर .....
तो हाज़रीन शाम की इब्तिदा करते हैं जनाब कैफी आज़मी के स्वागत के साथ...
कैफी:-नज़्म का उन्वान है 'मकान', पेशे-नज़र है
आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
ये ज़मीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने
उन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हमने॥
अपनी नस-नस में लिए मेहनते-पैहम की थकन
बंद आंखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आंखों में में खटकती है सियाह तीर लिए ॥
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठें,मैं भी उठूँ,तुम भी उठो,तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में निकल आएगी॥
हाज़रीन बड़े बरगद की झूलती जड़ से जब ठीक उसके नीचे बरगद का नया पौधा उग आए तो जो सुकून मिलता है उसी की कैफ़ियत लिए आ रहे हैं मनोज 'दुर्बी'
जम्हूरियत चुनाव की बातें करें
जातिगत बिखराव की बातें करें
भूख और अभाव की बातें करें
संघर्ष और बदलाव की बातें करें
तोड़ कर दुनिया की सारी सरहदें
इश्क के फैलाव की बातें करें
इस मशीनी जिंदगी में दो घड़ी
छाँव और ठहराव की बातें करें
हर जिस्म हर इक रूह है ज़ख्मी 'मनोज'
किस से अपने घाव की बातें करें।
ज़ोरदार तालियाँ हो जायें ...कि अगले शायर हैं जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
फ़ैज़ :-नज़्म का उन्वान एक इज्ज़तदार जानवर के नाम पर है,
'कुत्ते'
ये गलियों के बेकार आवारा कुत्ते ,
कि बख्शा गया जिनको ज़ौके-गदाई ।
ज़माने भर कि फटकर सरमाया इनका,
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई॥
न आराम शब् को न रहत सवेरे ,
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे।
जो बिगडें तो इक-दुसरे से लड़ा दो ,
ज़रा एक रोटी का टुकडा दिखा दो ।
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले ,
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले ।
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठायें,
तो इन्सान सब सरकशी भूल जाए ।
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें ,
ये आका़ओं की हड्डियाँ तक चबा लें।
कोई इनको एहसासे जिल्लत दिला दे,
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे ॥
मैं बड़े एहतराम के साथ दावते सुखन देना चाहता हूँ जनाब बल्ली सिंह 'चीमा'
ले मशालें चल पड़े हैं लोग लेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहाँ ये जानकर
अब लडाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा -ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपडी की साँस को
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
देख 'बल्ली'जो सुबह फीकी दिखे है आजकल
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
और अब वक्त -ए-दावत-ए-सुखन उस शायर का है......
2 comments:
एक से एक उम्दा रचनाऐं..जारी रहिये.
ustadon ke sher padhawane ke liye bahot bahot aabhar aapka.........
arsh
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