आज हमारे साथ हैं तसलीमा नसरीन, कैफ़ी आज़मी और...तो ख़वातीनो-हज़रात ये नज़्म बेहिचक आज स्त्री-विमर्श का एंथम कही जा सकती है ,बकौल शायर इसे जंगे-आज़ादी में महिलाओं को मर्दों के साथ बढ़ कर शिरक़त कराने के लिए लिखा गया।जनाब कैफ़ी आज़मी से विशेष आग्रह के साथ सुनना चाहेंगे...औरत !
कैफ़ी:-क़ल्बे हस्ती में लरज़ाँ शररे-जंग हैं आज।
हौसले वक़्त के और जीस्त के यकरंग हैं आज।
आबगीनों में तयां वलवलए संग हैं आज ।
हुस्न और इश्क हम आवाज़ो हम आहंग हैं आज।
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ॥
तू के बेजान खिलौनों से बहल जाती है
तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है
पाँवजिस राह में रखती है फिसल जाती है
बन के सीमाब हर इक सांचे में ढल जाती है
जीस्त के आहनी सांचे में भी ढलना है तुझे। उठ मेरी जान...
ज़िन्दगी ज़ेहद में है ,सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्जे हस्ती का लहू कांपते से आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नकहत ख़मे गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे।उठ मेरी जान ...
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेष बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर एक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे।उठ मेरी जान...
कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख का उन्वान बदलना है तुझे । उठ मेरी जान...
तोड़ कर रस्म का बुत बन्दे क़दामत से निकल
जोफे इशरत से निकल वहमे नज़ाक़त से निकल
नफ्स के खींचे हुए हल्का-ए- अज़मत से निकल
ये भी इक क़ैद ही क़ैदे मोहब्बत से निकल।
राह का खार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे।उठ मेरी जान...
तू अफ़्लातूनो अरस्तू है तू जोहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दू तेरी ठोकर पे ज़मीं
हाँ उठा ,जल्द उठा ,पा ए मुक़द्दर से जबीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कब तक की सम्हालना है तुझे ।
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे ...
मोहतरमा तसलीमा नसरीन का स्वागत करना चाहूँगा परवीन शाकिर के इन अशआर के साथ कि
पा बा गुल हैं सब रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्तबस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन ॥
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं ।
देखना है फेंकता है मुझ पे पहला तीर कौन
मोहतरमा तसलीमा नसरीन
तसलीमा:-कविता का शीर्षक है 'चरित्र'
तुम लड़की हो
ये बहुत अच्छी तरह याद रखना
तुम जब घर की दहलीज़ पार करोगी
लोग तुम्हें तिरछी नज़र से देखेंगे
तुम जब गली से होकर गुज़रोगी
लोग तुम्हें गालियाँ देंगे ,सीटियाँ बजायेंगे।
तुम जब गली पार कर
मुख्य सड़क पार पहुँचोगी ,
वे तुम्हें 'चरित्रहीन' कहेंगे।
गर तुम निर्जीव हो
तो लौट पडोगी वरना
जैसे जा रही हो जाओगी।
और ..अगले शायर हैं ...
1 comment:
कैफी जी की ये नज़्म मुझे हमेशा से पसंद है ....!
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