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Thursday, March 19, 2009

भूख...!/दुर्बी

फ़ाकों के क्या हाल सुनाऊँ ...?
मेरे घर का सूना चूल्हा
कब से मुझको ताक रहा है ।
घर के सारे टीन -कनस्तर
दाना -दाना तरस रहे हैं ।
सुख-दुःख के साथी थे चूहे ,
वे भी तनहा छोड़ चुके हैं ।
गलियों का आवारा कुत्ता तक
उम्मीदें छोड़ चुका है ।
सुबह शाम का उसका आना,
जाने
कब का छूट चुका है ।
मिलने पर भी उसकी दुम अब ,
पहले जैसी कब हिलती है ?
वो अपने अन्दर के कुत्ते को
मार चुका है और ढूंढ़ रहा है
अपने भीतर के मानव को...!
उसने भी बस्ती में जीना सीख लिया है ।

1 comment:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

हाँ ये तो सच है कि हालत चाहे जैसे हों.....जीना तो आखिरकार वह सीख ही लेगा.....!!