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Wednesday, March 18, 2009

मैं, तुम और शायरी...!/दीपक तिरुवा

मैं, तुम और शायरी...
तसव्वुर की सैरगाहों में ,धुंध पर चलते रहे।
सोया किए ओढ़ कर ,जुल्फों की सियाह रातें ।
देखा किए साझा ,मुस्तक़्बिल के हसीन ख़्वाब।
ग़मे-हस्ती,ग़मे-सामां अशआर में ढलते रहे ।
मैं,तुम और शायरी...
इक दूसरे के ज़ेहन की रानाइयों में डूबे थे ...
कि अचानक जल उठे वेद,
अज़ान का दम घुटने लगा
सरे-रोज़, सरे -बाज़ार कुछ लोगों ने ,
दो मजहबों की गर्दनें काट दीं और...
खून के छींटे गिरे हमारे दामन पर ,
मैं,तुम और शायरी
अब ये किस दोराहे पर खड़े हैं....?
(तसव्वुर=कल्पना, मुस्तक़्बिल=भविष्य ,अशआर =शेर का बहुवचन, ज़ेहन=मष्तिष्क , रानाइयां =सुन्दरता)

3 comments:

अनिल कान्त said...

bahut hi behtreen likha hai

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

धर्म-मजहब की चक्की में,

मानवता पिसती जाती है।

पत्थर पर दानवता नकली,

चन्दन घिसती जाती है।।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
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