मैं, तुम और शायरी...
तसव्वुर की सैरगाहों में ,धुंध पर चलते रहे।
सोया किए ओढ़ कर ,जुल्फों की सियाह रातें ।
देखा किए साझा ,मुस्तक़्बिल के हसीन ख़्वाब।
ग़मे-हस्ती,ग़मे-सामां अशआर में ढलते रहे ।
मैं,तुम और शायरी...
इक दूसरे के ज़ेहन की रानाइयों में डूबे थे ...
कि अचानक जल उठे वेद,
अज़ान का दम घुटने लगा
सरे-रोज़, सरे -बाज़ार कुछ लोगों ने ,
दो मजहबों की गर्दनें काट दीं और...
खून के छींटे गिरे हमारे दामन पर ,
मैं,तुम और शायरी
अब ये किस दोराहे पर खड़े हैं....?
(तसव्वुर=कल्पना, मुस्तक़्बिल=भविष्य ,अशआर =शेर का बहुवचन, ज़ेहन=मष्तिष्क , रानाइयां =सुन्दरता)
3 comments:
bahut hi behtreen likha hai
धर्म-मजहब की चक्की में,
मानवता पिसती जाती है।
पत्थर पर दानवता नकली,
चन्दन घिसती जाती है।।
Post a Comment