फिर उसके बाद किसी
बंजर रिश्ते के हम
दो सिरे रह गए....
तुम ले चले
मुझमें से हर मुमकिन शै ,
और मैं साये को उठा लाया
एक आदमी वहीँ छोड़ कर ।
आज लेकिन शबे तन्हाई में
दौड़ा आया है वही आदमी
दूर कहीं से ....
उसी रिश्ते का रेज़ा-रेज़ा,
मरते ताल्लुक के आखरी लम्हे लेकर ।
अबके सोचा है
इसे 'अजनबी' कह दूँ ....
(*शै=वस्तु *शबे तन्हाई=एकाकी रात्रि *रेज़ा-रेज़ा=कण-कण*ताल्लुक=सम्बन्ध)
/....दीपक तिरुवा
7 comments:
आदमी की भीड़ में ही अजनबी है आदमी।
आदमी की नीड़ में ही मसनबी है आदमी।
आदमी का आदमी के साथ धन्धा हो रहा।
आदमी का विश्व में बाजार गन्दा हो रहा।
आदमी डरता नही है तोप और तलवार से।
आदमी का अब जनाजा जा रहा संसार से।
BAHOT HI KHUBSURAT NAZM... BADHAAEE AAPKO..
ARSH
उसी रिश्ते का रेज़ा-रेज़ा,
मरते ताल्लुक के आखरी लम्हे लेकर ।
अबके सोचा है
lajwaab ....bahut sunder
अरे वाह क्या बात कह दी आपने.......कहाँ है आपका हाथ.....ज़रा चूम लूं मैं.....!!
आपकी साफ़गोई का मतलब अगर यह है कि मैंने अपनी कविता में हरकीरत जी की कविता से कुछ उधार लिया है,तो यह सच नहीं है, क्योंकि आपकी टिप्पणी के बाद पहली बार उनका ब्लोग देखा. दो लोगों के विचार एक जैसे हो सकते हैं,परन्तु शब्द अलग-अलग होते हैं. आपकी इस बात से मुझे बहुत दुख हुआ. मैं बेशक औरों की तरह बहुत अच्छी कवियत्री नहीं हूँ, परन्तु इतनी कुत्सित भी नहीं कि चोरी करूँ.
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