मीर 'दर्द' साहब !
फक्कड़ आदमी...सुलतान के दरबार में आना -जाना होता था । सुलतान की तबीयत शायराना थी ,आपसे इस्लाह किया करते थे ।एक बार मीर 'दर्द ' ने कई दिन तक कोई नया क़लाम नहीं सुनाया ,सुलतान पूछें तो कहते ,"कोई नया शेर हुआ ही नहीं ।"
आख़िर एक दिन सुलतान से नहीं रहा गया बोले ,"आप इतने बड़े शायर हो कर महीने में एक शेर नहीं कह सके ,हम तो रोज़ पाखाने में बैठकर ही चार -छः ग़ज़लें कह डालते हैं । "
"हुजूर के क़लाम से बू भी वैसी ही आती है ।" जवाब मिला ।
2 comments:
बढ़िया हाज़िर जवाबी!
---
चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें
हा हा!! बहुत उम्दा हाजिर जबाबी.
Post a Comment